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________________ 90 अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर पाना कठिन हो गया है। तब उन्होंने चित्रकूट (वर्तमान चितौड़-राजस्थान) में विराजमान गुरु ऐलाचार्य के पास जाकर उनसे भाषा एवं सिद्धान्त-शास्त्र का गहन अध्ययन किया और छक्खंडागम तथा कसायपाहुड-सुत्त पर धवला, महाधवला एवं जयधवला नामकी विस्तृत टीकाएं अपने शिष्य जिनसेनाचार्य के सहयोग से लिखकर उसकी क्षतिपूर्ति करने का सफल प्रयत्न किया। विद्वानों ने गद्य-पद्य मिश्रित इन टीकाओं को १३२००० पद्य-प्रमाण बतलाकर उसे मणि-प्रवाल न्याय-शैली में लिखित कहकर उसकी अपूर्वता की भूरि-भिर प्रशंसा की है। ___ आचार्य वीरसेन-स्वामी के जीवन परिचय की खोज के लिए विद्वानों ने अथक प्रयत्न किये किन्तु उन्हें निराशा ही हाथ लगी है। मेरी दृष्टि से उनका असली परिचय तो उक्त टीकात्रयी में विद्यमान् उनकी अगाध विद्वत्ता ही है और वही है उसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण। उनकी धवला आदि टीकाएं, अपने वर्ण्य-विषय, भाषा, समकालीन संस्कृति एवं इतिहास तथा लोकजीवन संबन्धी का अपूर्व भण्डार मानी गई है। फिर भी उन टीकाओं के लेखक के जीवन-वृत्त से साहित्य-जगत् को अपरिचित ही रहना पड़ रहा है। यह दुखद आश्चर्य है। फिर भी, उनके परम-शिष्य आद्य-पुराणकार आचार्य जिनसेन ने उनकी अगाध-विद्वत्ता के प्रति अपने भाव-भरित उद्गार व्यक्त किये हैं, जिनसे उनके महनीय व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है। जिनसेन ने उनके विषय में स्पष्ट लिखा है यस्य नैसर्गिकी प्रज्ञां दृष्टवा सर्वार्थगामिनीम्। जाता सर्वज्ञ सद्भावे निरारेका मनस्विनः।। अर्थात् (गुरु-) वीरसेन-स्वामी की स्वाभाविक सर्वार्थगामिनी प्रज्ञा को देखकर विद्वज्जन सर्वज्ञ के सद्भाव के विषय में संदेहरहित हो जाते हैं। ___आचार्य जिनसेन के लिये भी इतना लिख देने मात्र से संतोष न हुआ। अतः पुनः लिखा"आचार्य वीरसेन-स्वामी निराशा के गर्त में डूबे आसन्न-भव्यों का उत्साहवर्धन करने में उसी प्रकार समर्थ हुए, जिस प्रकार पूर्णमासी का चन्द्रमा कुमुद-समूह को प्रसन्न कर देने में समर्थ होता है। वे साक्षात् केवलि-भगवान् के समान इन्द्रिय-अगोचर एवं विश्व के पारदृष्टा ऋषिपुंगव थे।" ___ “उनकी समस्त विषयों को आक्रान्त करने वाली भारती, सरस्वती के सदृश षट्खण्डागम की अर्थ-प्ररूपणा में कहीं भी स्खलित नहीं हुई, इसीलिए विद्वज्जन उन्हें ज्ञान की रश्मियों का प्रसार करने वाला सूर्य, श्रुतकेवली और श्रेष्ठ प्रज्ञाश्रमण कहते आये हैं।" “प्रसिद्धि और सिद्ध-सिद्धान्त रूपी समुद्र-जल से धुलकर उनकी प्रतिभा ऐसी फेनोज्ज्वल हो गई है कि वे बुद्धि-संपन्न प्रत्येकबुद्धों के साथ भी स्पर्धा करते हैं।" _"उन्होंने चिरकालीन पोथियों अथवा आगमग्रन्थों को अपनी टीका द्वारा गौरवशाली बनाकर पूर्वकालीन समस्त पोथी-शिष्यों अथवा आगम-पाठियों से अधिक अतिशय प्राप्त किया।" "अपने ज्ञानोपदेश द्वारा भव्यों को संबोधित करते हुए वे 'पंचस्तूपान्वय' में ऐसे दैदीप्यमान हैं, जैसे अपनी प्रकाश-किरणों द्वारा कमलों को प्रफुल्लित करता हुआ आकाश में सूर्य। इस आर्यनन्दी के शिष्य तथा चन्द्रसेन के प्रशिष्य आचार्य वीरसेन ने अपने गुणों द्वारा अपने कुल
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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