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________________ श्रुत-पंचमी-पर्व : श्रुत-साधना का प्रेरक-स्रोत अभी कुछ समय पूर्व मुझे विदेशों में सुरक्षित पाण्डुलिपियों के विषय में कुछ जानकारी प्राप्त हुई थी, जिसके अनुसार विभिन्न देशों के प्राच्य शास्त्र-भण्डारों में १२७००० के लगभग भारतीय पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित हैं, मेरी दृष्टि से उनमें अनेक जैन पाण्डुलिपियाँ अवश्य होंगी। यहाँ मैं चीन एवं रूस के मध्य में स्थित मंगोलिया की पाण्डुलिपियों के विषय में संक्षिप्त चर्चा करना आवश्यक समझता हूँ। इसकी राजधानी उलान्वातार के राजकीय ग्रन्थागार में सहस्रों भारतीय पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित हैं, जिनमें से अभी तक की खोज में पंचतंत्र, शमनगीत (श्रमण-गीत), सुभाषितरत्न-निधि, अमरकोष, मेघदूत, चाणक्य-अर्थशास्त्र एवं कथासागर के मंगोल-अनुवाद मिले हैं किन्तु इनमें से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, वहाँ के कंजूर-तंजूर नाम के धर्मग्रन्थ। "कंजूर" शब्द मंगोलियाइ-भाषा का है, जिसका अर्थ है-“भगवान् के मुख से निकले हुए प्रवचन" तथा 'तंजूर' का अर्थ है- “उन प्रवचनों पर लिखित टीकाएँ"। मेरी दृष्टि से कहीं ऐसा तो नहीं है कि पद्मनन्दि आदि पंचाचार्यों द्वारा लिखित जिस टीका-साहित्य को लुप्त-विलुप्त समझ लिया गया, वह समग्र या आंशिक रूप में कहीं मंगोलिया के ग्रंथागारों में तो सुरक्षित नहीं है? क्योंकि यह तो सर्वविदित ही है कि चीनी-पर्यटक फाहियान, यूनत्सांग, इत्सिंग आदि भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने भारत आये थे और भारत-भ्रमण के बाद जाते समय यहां से अनेक पाण्डुलिपियाँ भी अपने साथ लेते गये थे। इस प्रसंग में यहाँ यह विचारणीय है कि उक्त पर्यटकों के आने-जाने का समय प्रायः वही है, जो उक्त टीका-साहित्य के लेखन-काल का। वे पर्यटक पांचवी-सदी के प्रारंभ से आठवीं सदी तक भारत-भ्रमण करते रहे। उन्होंने प्रायः समस्त भारत का भ्रमण किया था। इसका तो स्पष्ट उल्लेख ही मिलता है कि यूनत्सांग स्वयं अकेले ही ६५० पाण्डुलिपियाँ अपने साथ लेकर चीन लौटा था। (दे. मेहता-प्राचीन भारत पृ.२५१)। लोकप्रिय होने के कारण इन पाण्डुलिपियों की संभवतः प्रतिलिपियों का वितरण भी होता रहा होगा, जो मंगोलिया तथा अन्य आसपास के देशों में भी पहुँची होंगी। कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि भ्रमवश जैन-पाण्डुलिपियों को बौद्ध-पाण्डुलिपियाँ भी मान लिया गया। कुछ समीक्षकों के अनसार ह्यूत्सांग ने पाटलिपुत्र में एक जैन-रथयात्रा को देखकर भ्रमवश उसे बौद्ध-रथयात्रा कह दिया था क्योंकि उसका ज्ञान एकांगी था। __स्थिति कुछ भी हो, आवश्यकता इस बात की है कि जैन-विद्या के विशेषज्ञों को मंगोलिया आदि देशों में जाकर स्वयं वस्तु स्थिति का निरीक्षण-परीक्षण करना चाहिये। मुझे विश्वास है कि लुप्त-विलुप्त घोषित हमारी कुछ पाण्डुलिपियाँ वहाँ तथा अन्यत्र विदेशों में सुरक्षित हैं और खोजने से मिल भी सकती हैं। __ नवमी-सदी के प्रथम चरण में महामति आचार्य वीरसेन-स्वामी को जब उक्त टीका-साहित्य के लुप्त हो जाने की जानकारी हुई तो वे अत्यन्त चिंतित हो उठे और सोचने लगे कि छक्खंडागम-सुत्त आदि पर लिखित विस्तृत टीकाएं नष्ट हो जाने के कारण स्वाध्याशील सामान्य जिज्ञासुओं के लिए उक्त आगम-सूत्रों में अन्तर्गर्भित सैद्धान्तिक रहस्यों को समझ
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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