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________________ 86 अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर ब्रह्मचारी विद्याधर को जैनधर्म का गहन अध्ययन करने के उपरान्त अन्य दर्शन के ग्रन्थों का अध्ययन करने का आदेश दिया था और ब्रह्मचारी विद्याधर की शंका को भाँपते हुए कहते हैं कि अन्य दर्शन के अध्ययन से तद्जन्य अव्यवस्थाओं का ज्ञान होता है और इसी के फलस्वरूप वर्तमान में जब भी ज्ञान की महिमा का मण्डन किया जाता है आचार्य विद्यासागर जी महाराज का अध्यवसाय निश्चित रूप से जैन ग्रन्थों के अध्ययन से ही बना होगा क्योंकि आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने भी कपिलमत का खण्डन करने के लिए नैयायिकों का तर्क दिया है जो कि अन्य दर्शन के अध्यवसाय से ही सम्भव है। यह परम्परा तत्त्वार्थराजवर्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार से होते हुए वर्तमान में भी अत्यन्त उपयोगी है। उपर्युक्त वर्णन के अतिरिक्त सांख्य, वैशेषिक, योग, बौद्ध, मीमांसक, चार्वाक, नैयायिक आदि के मन्तव्यों का तत्परतापूर्वक मनन एवं चिन्तन कर आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने प्रत्युत्तर दिया है तथा आर्हत् मत का मण्डन किया है, रत्नत्रय का वर्णन प्रथम अध्याय के प्रथमसूत्र के अन्तर्गत शताधिक पृष्ठों में है किन्तु सामान्य रत्नत्रय उसके भेद तथा अभेद रूप दो विभाजन, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र, सम्यक् पद की उपयोगिता आदि सामान्य चर्चाओं को अनुल्लेखित किया है। १. पंचास्तिकाय, १६० गा. धम्मादीसद्दहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं।। चेट्ठा तवं हि चारिया ववहारों मोक्खमग्गो त्ति ।। १६० ।। समयसार, गा. १५५ प्रवचनसार, २४० गा. न स्थिरज्ञानात्मकः संप्रज्ञातों योगः संस्कारक्षयकारणभिष्यते यतस्तस्य प्रधान धर्मत्वात्तत्क्षयान्मुक्तिः स्यात्। सो पि च तत्क्षायों ज्ञानादज्ञानाद्वा समाधरति पर्यनुयोगस्य समानत्वादनवस्थानमाशक्यते। पृ. ८९ मिथ्यार्थाभिनिवेशे मिथ्याज्ञानेन वर्जितम।। यत्पुंरूपमुदासीनं तच्चेद्ध्यानं मतं तव ।। ६२ ।। दृतं रत्नत्रयं किं न ततः परमिहेष्यते।। यतो न तन्निमित्तत्वं मुक्तेरास्थीयते त्वया ।। ६३ ।। समवायों हिसर्वत्र न विशेषकृदेककः।। कथं खादीनि संत्यज्य पुंसिज्ञानं नियोजयेत् - पृष्ठ-९५ ७. प्रधानाक्षयि विज्ञानं न पुंसो ज्ञत्वसाधनम् ।। यदि भिन्नं कथं पुंसस्तत्तथेष्टं जडात्मभिः ।। ६८ ।। पृष्ठ-९४ - राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान ५६-५७, इंस्ट्टीयूशनल एरिया, जनकपुरी, डी-ब्लाक नई दिल्ली -११००५८
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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