SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भेद रत्नत्रय - अभेद रत्नत्रय तत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार के परिप्रेक्ष्य में जहाँ तक भेद तथा अभेद के मध्य सम्बन्ध का प्रश्न है तो भेद रत्नत्रय, अभेद रत्नत्रय का कारण है और अभेद रत्नत्रय, मोक्ष का कारण है अर्थात भेद रत्नत्रय, अभेद रत्नत्रय का साधन है तथा अभेद रत्नत्रय, मोक्ष का साधन है और मोक्ष स्वयं में साध्य है। जैनदर्शन ने मोक्ष का हेतु रत्नत्रय माना है वहीं अन्य दर्शनों का उल्लेख करते हुए आचार्य विद्यानन्द स्वामी कहते हैं कि अन्य दर्शनकारों ने पृथक्-पृथक् रूप अर्थात् मात्र श्रद्धान को, मात्र ज्ञान को या मात्र चारित्र को मुक्ति का कारण माना है ऐसी स्थिती में तद्-तद् विचारों का मन्थनपूर्वक आचार्य विद्यानन्द ने निराकरण किया है तथा इस तथ्य का पूर्णतया समर्थन किया है कि रत्नत्रय समग्र रूप में ही मुक्ति का कारण है। कपिल ने मात्र संप्रज्ञात योगावस्था को मुक्ति का हेतु मानने पर बल दिया है। किन्तु उन्हीं के मत में आयु नामक संस्कार की उपस्थिति में मुक्ति को असम्भव मान्य किया है। उन्हीं की मान्यता को आधार बनाकर दोष देते हुए आ. विद्यानन्द स्वामी कहते हैं जिस संप्रज्ञात योग का क्षय प्रकृति के ज्ञान अथवा अज्ञान रूप समाधि परिणाम से क्षय होना स्वीकार है उसके उत्तरोत्तर नाश करने पर अनवस्था दोष उत्पन्न होगा एतत् आपकी मान्यता या धारणा गलत है। इसी प्रश्नोत्तर के क्रम में आचार्य विद्यानन्द मोक्ष के अपर तथा पर रूप दो भेद करते हुए कहते हैं कि जहाँ आयु के संस्कार का क्षय नहीं होने के कारण कुछ काल तक सर्वज्ञ-अवस्था में जीव संसार में रहता हैं उसे अपर मोक्ष कहते हैं और जहाँ अन्त में असंप्रज्ञात अर्थात् अयोगावस्था में योग अर्थात् परमसमाधि में जीव संस्कारों का क्षय करता है वह पर-मोक्ष अन्त में आचार्य विद्यानन्द स्वामी कहते हैं कि स्वयं ही वाकजाल में फंसकर सांख्य दर्शन आर्हत् मत का ही अनुमोदन कर रहा है। अतः हमें इसमें कोई आपत्ति नहीं है। रत्नत्रय को आधार करके आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने और नैयायिक की अवधारणा का भी निराकरण किया है जो आत्मा के साथ ज्ञान का समवाय सम्बन्ध मानते हैं। नैयायिकों की दृष्टि से द्रव्य के प्रत्येक प्रदेश में गुण का अस्तित्व होना, समवाय सम्बन्ध है। किन्तु यदि सामान्य से ज्ञान के साथ आत्मा का सम्बन्ध है तो आकाशादि से भी इसका सम्बन्ध बनता है और विशेष तत्त्व की कल्पना सांख्य को विकार है। अतः दोनों ही अवस्था में आत्मा और ज्ञान का तादात्म्य सम्बन्ध संस्थापित नहीं होता है। इस कारण कपिल स्वयं अज्ञानी सिद्ध होते हैं एवं नैयायिक की ज्ञान सहित ईश्वर की अवधारणा भी धूमिल होती है। वस्तुतः इस प्रकार की सांख्य की मान्यता द्रव्य के द्रव्यस्व को प्रभावित करता है क्योंकि जो ज्ञान प्रकृति अर्थात् अचेतन का गुण है अर्थात् पुरूष भिन्न द्रव्य का विशिष्ट गुण है वह भिन्न द्रव्य अर्थात जीव का लक्षण कैसे बन सकता है ऐसे में ज्ञान गुण अतिव्याप्ति दोष युक्त हो जाता है। अतः इस प्रकार सांख्य की मूलभूत धारणा ही ध्वस्त हो जाती है जो कि सर्वथा अनुचित है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से आचार्य विद्यानन्द स्वामी की एक विशेषता का ज्ञान होता है और आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज की दूरदर्शिता का भी ज्ञान हो जाता है। आचार्य श्री ने
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy