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________________ अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर प्रायश्चित (पायच्छित्त) एक अंतरंग तप अन्तरंग तप के छह भेद हैं - प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, और ध्यान। इन्हें आभ्यंतर तप कहने का कारण बताते हुए अकलंकदेव ने कहा कि ये प्रायश्चित्तादि तप बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं रखते, अन्तःकरण के व्यापार से होते हैं तथा अन्य मतानुयायियों द्वारा अनभ्यस्त और अप्राप्त होते हैं, इसलिए आभ्यन्तर कहे जाते हैं। प्रायश्चित को आभ्यन्तर तपों में क्यों स्थान दिया गया है? इस प्रश्न का समाधान करते हुए पूज्यपाद देवनन्दि ने लिखा है कि मन का नियमन करने वाला होने से इसे आभ्यन्तर तप कहते है - कथमस्याभ्यन्तरत्वम्। मनोनियमनार्थत्वात्। तपों के इन भेदों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता होती जाती है। प्रायश्चित तप एवं प्रयोजन :- कर्मक्षय के लिए जो तपा जाय वह तप है - कर्मक्षयार्थ तप्यत इति तपः। तप के द्वारा कर्मक्षय करने के लिए शरीर और इन्द्रियों को तपाया जाता है। तपः कर्मक्षयार्थ तप्यन्ते शरीरेन्द्रियाणि तपः।" लोक में सन्तान प्राप्ति के लिए, यश-प्रतिष्ठा प्राप्ति हेतु एवं धन-संपदा आदि की प्राप्ति के लिए तपों का आचरण किया जाता है। परन्तु जैन धर्म में तप का प्रयोजन आत्मा का शुद्धिकरण है। पुनर्जन्म एवं वृद्धावस्था को त्यागने के लिए है - अपत्यवित्तोत्तरलोकतृष्णया तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते। भवान्पुनर्जन्मजराजिहासया त्रयीं प्रवृत्तिं समघीरवारुणत्॥ (स्वयंभूस्तोत्र, श्लोक ४९) अर्थात् कुछ तपस्वी अपत्य (पुत्र), धन या उत्तरलोक (परलोक या इहलोक) के सुखों की आकांक्षा से कर्म (तपादि संयम) धारण करते हैं। परन्तु आपने जन्म जरा और मृत्यु नाश करने के लिए मन, वचन, काय को रोका है। तपाचरण से देहाध्यास नष्ट होता है। देह के प्रति आसक्ति आत्मसाधना में प्रमुख विघ्न है। शरीर की आसक्ति से विलासिता और प्रमाद उत्पन्न होता है। तप के द्वारा कर्मो/ पुद्गलों को आत्मा से अलग-थलक करके आत्मा का विशुद्ध रूप प्रकट किया जाता है। इसलिए तप को आत्म परिशोधन की प्रक्रिया माना गया है। इससे आबद्ध कर्मों का क्षय हो जाता है। जैसे कि तपा करके स्वर्ण को विशुद्ध किया जाता है। प्रायश्चित्त शब्द का अर्थ - प्रायश्चित्त शब्द दो शब्द के मेल से बना है- प्रायः+चित्त। प्रायः शब्द का अर्थ है - साधुलोक या साधुसमाज। साधुओं का जिस कर्म में चित्त हो, वह प्रायश्चित्त कहलाता है। अथवा, प्रायः' शब्द का अर्थ है - अपराध। और 'चित्त' शब्द का अर्थ है - शुद्धि। इस तरह प्रायः + चित्त शब्द का सम्मिलित अर्थ है- अपराध से शुद्धि। “प्रायः साधुलोकः प्रायस्य यस्मिन्कर्मणि चित्तं तत्प्रायश्चित्तम्।” अथवा, अपराधो वा प्रायः चित्तं शुद्धिः, प्रायस्य चित्तं प्रायश्चितम्, अपराधविशुद्धिरित्यर्थः।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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