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________________ आचार्य वट्टकेर विरचित 'मूलाचार' और प्रायश्चित्त व्यवस्था - डॉ. कमलेशकुमार जैन जाने-अनजाने में हुई भूल का परिमार्जन करने एवं भविष्य में उस भूल की पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए जो अपराध शोधन क्रिया की जाती है, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। मनुष्य, चाहे वह गृहस्थ हो या सन्यासी, के द्वारा पग-पग पर भूल, दोष या अपराध होता है अथवा भूल, दोष या अपराध होने की संभावना रहती है। अतः इन सब अपराधों के शोधन के लिए प्रायश्चित्तों का विधान भी शास्त्रों में पाया जाता है। इन प्रायश्चित्तों की चर्चा न्यूनाधिक रूप से भारतीय सभी धार्मिक परम्पराओं में पायी जाती है। वैदिक परम्परा में प्रायश्चित्त विधान करने वाला विपुल साहित्य लिखा गया है। यहाँ पर प्रायश्चित्त को धर्मशास्त्र के अंतर्गत रखा गया है। विशेषकर स्मृतियों में इसकी विस्तार से चर्चा की गई है। याज्ञवल्क्य-स्मृति के तीन विभाग हैं - आचार, व्यवहार और प्रायश्चित्त। प्रायश्चित्त नामक तृतीय अध्याय में, ३३४ श्लोकों में मात्र प्रायश्चित्तों का विधान पाया जाता है। जैन धर्म में प्रायश्चित्त एक तप माना गया है। इसकी गणना आभ्यन्तर तपों में की गई है। प्रायश्चित्तादि छह तपों की क्रियाएं अन्तः में चलने वाली प्रक्रियाएं हैं, अतः इनका प्रवृत्त्यंश या फल बाहर से दिखाई नहीं देता है। इन तपों के द्वारा मन को एकाग्र, शुद्ध और निर्मल बनाया जाता है। प्रस्तुत निबंध में आचार्य वट्टकेर रचित मूलाचार में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधान विषयक विवरण के आलोक में प्रायश्चित्त व्यवस्था का संक्षिप्त अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। मूलाचार के पंचाचार अधिकार में तपों का विवेचन करते समय प्रायश्चित्त के विषय में मात्र तीन गाथाएँ आयीं हैं। पहली गाथा में प्रायश्चित्त का स्वरूप, दूसरी गाथा में प्रायश्चित्त के भेद एवं तीसरी गाथा में अन्य नाम बताए गए हैं। बाह्य तप का प्रयोजन बताते हुए यहाँ कहा गया है कि बाह्य तपों से मन अशुभ को प्राप्त नहीं होता, तपों से श्रद्धा-शुभ अनुराग-पैदा होता है और योग अर्थात् मूल गुणों की हानि भी नहीं होती। यहाँ पर बाह्य तपों के जो छह प्रकार बताए हैं, उनके नाम व क्रम इस प्रकार हैं - अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्या, कायपरिताप और विविक्तशयनाशन। तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं आदि में कायपरिताप' नामक तप के स्थान पर कायक्लेश' शब्द का प्रयोग पाया जाता है। तत्त्वार्थसूत्र से इसके स्वरूप एवं क्रम में भी अंतर पाया जाता है। प्रस्तुत निबंध में मूलाचार में प्रतिपादित प्रायश्चित्त तप के विवरण के साथ-साथ जैन परम्परा में स्वीकृत प्रायश्चित्त का स्वरूप एवं विधान संकेतित किया गया है।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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