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________________ अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर 44 से पूर्व व्यक्ति पुरुषार्थ के माध्यम से उनमें परिवर्तन भी कर सकता है। जैन ग्रन्थों में कर्म की दस अवस्थाओं - बंध, सत्ता, उदय, उदीरणा, अपवर्तन, उद्वर्तन, संक्रमण आदि का वर्णन प्राप्त होता है। यदि व्यक्ति परतंत्र ही होता तो अपवर्तन, उद्वर्तन, संक्रमण आदि का कोई अर्थ ह नहीं रहता। इसके अतिरिक्त जैन आगमों में ऐसे अनेक प्रसंग उपलब्ध हैं जहाँ तप आदि पुरुषार्थ के माध्यम से व्यक्ति ने मुक्ति को प्राप्त किया है। भगवान् महावीर ने भी आजीवक सम्प्रदाय के सद्दालपुत्र को पुरुषार्थ की प्रेरणा दी थी। भगवान महावीर विहार करते-करते सद्दालपुत्र के कुंभकारापणों में पहुंचते है। वहाँ उससे पूछा - "तुमने इन मिट्टी के बर्तनों को बनाने में पुरुषार्थ और पराक्रम किया है या ये ऐसे ही निर्मित हो गए?" सद्दालपुत्र ने कहा“इनको बनाने में किसी भी प्रकार का पुरुषार्थ या पराक्रम नहीं करना पड़ा। ये सब अपने आप नियति के प्रभाव से बने हैं।" भगवान महावीर प्रतिप्रश्न करते हुए कहते हैं- “यदि तुम्हारे इन मिट्टी के बर्तनों को कोई चुरा ले या फोड़ दे तो तुम क्या करोगे?" सद्दालपुत्र तत्काल बोला “मैं उसको पीदूंगा, मारूंगा, आदि-आदि।" भगवान ने उसे समझाते हुए कहा यदि तुम ऐसा करते हो तो इसका अर्थ हुआ कि तुम पुरुषकार और पराक्रम को स्वीकार करते हो । अतः इन प्रमाणों से यही प्रतिध्वनित होता है कि व्यक्ति पुरुषार्थ के माध्यम से पूर्व संचित कर्मों में कुछ परिवर्तन भी कर सकता है। शर्त इतनी ही है कि पुरुषार्थ का प्रयोग कर्मोदय से पूर्व किया जाए वरना जैसा कर्म किया वैसे ही भोगना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त भारतीय दर्शन के अन्तर्गत कुछ दर्शन ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करते है। ईश्वर को ही संसार का कर्त्ता, धर्ता और हर्ता के रूप में मानते हैं। व्यक्ति सिर्फ निमित्त है और जो कुछ करवाता है, वह ईश्वर ही है। इसके विपरीत जैन दर्शन आत्मा को स्वतंत्र कर्त्ता के रूप में स्वीकार करता हैं। जो कुछ करने वाली है, वह आत्मा है । यह गाथाएं व्यक्ति के आत्म स्वातंत्र्य को प्रकट करती है आत्मा कर्ता है। कर्म उसकी कृति है। अतः अच्छे कर्म करने वालों को अच्छा फल एवं बुरे कर्म करने वालों को बुरा फल मिलता है और यदि ईश्वर को कर्त्ता स्वीकार किया जाए तो अच्छे और बुरे कर्मों का फल भी ईश्वर को ही मिलना चाहिए क्योंकि ईश्वर ही मूल कर्ता है। जबकि हम व्यवहार जगत में भी यही देखते हैं कि व्यक्ति को अच्छे और बुरे कर्मों का फल मिलता है । कर्तृत्व व्यहि के भीतर उसके संकल्प में हैं। मूल्य कर्ता का होता है। यदि कर्म सब कुछ हो जाए तो कर्ता गौण बन जाएगा। किन्तु जैन दर्शन के अनुसार कर्त्ता का महत्त्व है। आत्मा न ईश्वराधीन है न कर्माधीन ही है। वह अपने पुरुषार्थ से ही अपने कर्मों को करता है। कर्मसूत्र में उद्धृत अगली गाथा कम्मत्तणेण एक्कं, दव्वं भावो त्ति होदि दुविहं तु । पोग्गलपिंडो धव्वं, तस्सत्ती भावकम्मं तु ॥ अर्थात् सामान्य की अपेक्षा कर्म एक है और द्रव्य तथा भाव की अपेक्षा दो (प्रकार का) है। कर्म-पुद्गलों का पिण्ड द्रव्यकर्म है और उसमें रहनेवाली शक्ति या उनके निमित्त से में होने वाले राग-द्वेषरूप विकार भावकर्म है। यह गाथा जैन दर्शन के एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त अनेकान्त की ओर हमारा ध्यान केन्द्रित करवाती है। हमारी दुनिया सापेक्षता के आधार पर चलती है। इसलिए वस्तु तत्त्व को सही रूप
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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