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________________ समण सुत्तं में उद्धृत कर्म सूत्रों की उपादेयता इसलिए यह गाथा दर्शन जगत् में उभरती हुई इस समस्या के समाधान रूप होने से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। जगत की विचित्रता का यही एक कारण है - कर्म कर्ता का अनुगमन करता है। कोई दूसरा उसका संवेदन नहीं कर सकता। दुःख या पीड़ा का अनुभव होने पर ज्ञाति, मित्र, पुत्र आदि हमें सांतवना (sympathy) दे सकते हैं किन्तु हमारे दुःख को बांट नहीं सकते। व्यक्ति को अकेले ही दुःख का अनुभव करना पडता है। यही सिद्धान्त जब रत्नाकर को मुनिगण समझाते हैं तो वह अपने परिवार को जाकर पूछता है कि क्या वह चोरी या डकैती करके जो धन कमा रहा है, उससे लगने वाले पाप को भोगने में वे लोग भी उसका साथ देंगें? इस प्रश्न पर जब परिवार के सभी सदस्य मौन रहते हैं तो रत्नाकर समझ जाता है कि व्यक्ति को अपने किए हुए कर्मों का भोग स्वयं ही करना पडता है। यही वह सिद्धान्त था जो रत्नाकर के जीवन में नया मोड़ लाया। वही रत्नाकर आगे जाकर वाल्मीकि बन गया। हम प्रत्यक्षतः देखते भी हैं कि कोई भी व्यक्ति अपनी व्याधि या कष्टों को किसी दूसरे को दे नहीं सकता और न ही वह ले सकता है। दूसरे सिर्फ उसे सांत्वना या साहस बंधवा सकते हैं। अंततः वह दुःख उसका ही है। उसे ही भोगना पड़ता है। कर्मसूत्र की अगली गाथाएं कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परव्वसा होति। रूक्खं रूहइ सवसो, विगलइ स परव्वसो तुत्तो॥ कम्मवसा खलु जीवा, जीववसूरई कहिंचि कम्माई। कत्थइ धणिओ बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं॥ अर्थात् “जीव कर्मों का बन्ध करने में स्वतंत्र है, परन्तु उस कर्म का उदय होने पर भोगने में उसके अधीन हो जाता है। जैसे कोई पुरुष स्वेच्छा से वृक्ष पर तो चढ़ जाता है, किन्तु प्रमादवश नीचे गिरते समय परवश हो जाता है। कहीं जीव कर्म के अधीन होते हैं तो कहीं कर्म जीव के अधीन होते हैं। जैसे कहीं (ऋण देते समय तो) धनी बलवान् होता है तो कहीं (ऋण लौटाते समय) कर्जदार बलवान् होता है।" प्रथम गाथा का सार यह है कि व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है किन्तु भोगने में परतंत्र। जैसा किया वैसा भोगना ही पड़ेगा। इस गाथा को पढ़ने से व्यक्ति कर्मवाद को नियतिवाद समझ सकता है। लेकिन कर्मवाद नियतिवाद नहीं है। नियतिवाद की अवधारणा के अनुसार व्यक्ति जो कुछ करता है वह पहले से नियत है और व्यक्ति उसका किसी तरह से अतिक्रमण नहीं कर सकता। दूसरी तरफ कर्मवाद का सामान्य सिद्धान्त भी यही है - जीव कर्मों का बंधन करने में स्वतंत्र है और भोगने में परतंत्र। इस तरह कर्मवाद को नियतिवाद मान लिया जाता है किन्तु ऐसा मानना मिथ्या अवधारणा होगी। यह तथ्य दूसरी गाथा से स्पष्ट होता है। “कर्म करने में स्वतंत्र और भोगने में परतंत्र होना" - यह कर्म का सामान्य सिद्धान्त है। जैन दर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। यहाँ कर्म के साथ-साथ पुरुषार्थ को भी उतना ही महत्त्व दिया गया है। व्यक्ति अपने पुरुषार्थ के माध्यम से पूर्व संचित कर्मों में यत्किंचित् परिवर्तन भी कर सकता है। यहाँ परतंत्रता जो बताई गई है वह कमों के उदय के पश्चात् की बात है। कार्मोदय
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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