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________________ अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर 38 यद्यपि अकलंङ्कदेव अविनाभाव रूप एक लक्षण के अभाव में वस्तुतः एक ही असिद्ध हेत्वाभास मानते हैं, किन्तु अविनाभाव का अभाव कई प्रकार से होता है, अतः विरुद्ध, असिद्ध, सन्दिग्ध और अकिञ्चित्कर ये चार हेत्वाभास भी मानते हैं। नैयायिक तत्त्वनिर्णय और तत्त्वाध्यवसाय संरक्षण को जुदा मानकर तत्त्वाध्यवसाय संरक्षण के लिए छल आदि असत् उपायों का आलम्बन करना भी उचित ही नहीं, न करने पर निग्रहस्थान मानते हैं, पर अकलंङ्कदेव ने किसी भी दशा में छलादि का प्रयोग उचित नहीं माना। अतः उनकी दृष्टि से छलादि प्रयोग वाली जल्पकथा और वितण्डा कथा का अस्तित्त्व ही नहीं है। वे केवल एक वादकथा मानते हैं। इसीलिए वे वाद को ही जल्प कहते हैं। अकलंङ्क ने मिथ्या उत्तर को जात्त्युत्तर कहा है। साधादिसमा आदि जातियों के प्रयोग को ये अनुचित मानते है। उन्होंने यह भी कहा है कि मिथ्या उत्तर अनन्त प्रकार के हैं, उनकी गिनती करना कठिन है। नैयायिकों ने जय-पराजय व्यवस्था के लिए निग्रह स्थानों का जटिल जाल बनाया है। अकलङ्कदेव ने कहा है कि जो अपना पक्ष सिद्ध कर ले, उसका जय और जिसका पक्ष निराकृत हो जाय, उसका पराजय होना चाहिए। अपने पक्ष को सिद्ध करके कोई नाचता भी है तो कोई दोष नहीं है। सिद्धिविनिश्चय टीका के कर्ता अनन्तवीर्य - आचार्य अनन्तवीर्य अपने युग के श्रद्धालु तार्किक और प्रतिभासंपन्न आचार्य थे। भट्टाकलङ्कदेव ने गूढ़तम प्रकरण ग्रन्थों के हार्द को उद्घाटित करने का अप्रतिम प्रयत्न किया है। यद्यपि इनके सामने अकलंङ्क-सूत्र के वृत्तिकार वृद्ध अनन्तवीर्य की सिद्धिविनिश्चय वृत्ति रही है, पर इनके द्वारा लिखे गए इस श्लोक से विदित होता है कि ये वृद्ध अनन्तवीर्य की व्याख्या से बहुत संतुष्ट नहीं थे। वे आश्चर्य प्रकट करते हुए लिखते हैं - देवस्यानन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्तं सर्वथा। न जानीते अकलंङ्कस्य चित्रमेतद् परं भुवि॥ आचार्य अनन्तवीर्य बहुश्रुत विद्वान् थे। उन्होंने जिस प्रकार विषय को स्पष्ट करने के लिए पूर्वपक्षीय ग्रन्थों से सैकड़ों अवतरण ‘तदुक्तम्' आदि के साथ उद्धृत किए हैं, उसी तरह स्वपक्ष के समर्थन के लिए भी पूर्वाचार्य के वचनों के पचासों प्रमाण उपस्थित किए हैं। इनका दर्शनशास्त्रीय अध्ययन बहुव्यापक और सर्वतोमुखी था। पूर्वपक्ष के प्रस्तुतीकरण में उन्होंने वैदिक साहित्य, महाभारत, न्यायसूत्र तथा न्यायभाष्य, सांख्य कारिका, योगसूत्र और व्यास के योगभाष्य, जैमिनि सूत्र, शाबर भाष्य, मीमांसा श्लोकवार्तिक, त्रिपिटिक, अभिधर्मकोश, नागार्जुन की माध्यमिक वृत्ति, दिड्.नाग का प्रमाणसमुच्चय और उसकी स्ववृत्ति, धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय, न्याय विन्दु, वादन्याय, हेतुबिन्दु, सम्बन्ध परीक्षा आदि और प्रज्ञाकर का प्रमाणवार्तिकालंकार उद्धृत किए हैं। अन्य बौद्धग्रन्थों में धर्मकीर्ति का अपोह वार्तिक, अर्चट की हेतु बिन्दु टीका, कल्लक (कर्णकगोमि) तथा शान्तभद्र के अवतरणों से अनन्तवीर्य की सिद्धिविनिश्चिय टीका परिपुष्ट हुई है। उत्तरपक्ष को पुष्ट करने के लिए उमास्वामी के
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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