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________________ 37 न्यायाचार्य महेन्द्रकुमार जैन और उनके द्वारा सम्पादित सिद्धिविनिश्चय टीका चूकते। जब धर्मकीर्ति परिवार ने जैन सिद्धान्त को अश्लील, आकुल प्रलाप आदि कहना आरंभ किया तो इनका अहिंसक मानस डोल उठा और उन्होंने इन पर प्रहारों से जैन शासन की रक्षा करने हेतु सर्वप्रथम अपने सिद्धान्तों की व्यवस्था की ओर ध्यान दिया। अकलंङ्क की जैन न्याय को बहुत बड़ी देन है। अकलङ्कदेव ने प्रमाण लक्षण में 'अविसंवादी' पद देकर ऐसे ज्ञान को प्रमाण कहा जो अविसंवादी हो इस लक्षण में उन्होंने स्व पद पर जोर नहीं दिया, क्योंकि स्वसंवेदन ज्ञानसामान्य का धर्म है, प्रमाण ज्ञान का ही नहीं। वे कहीं प्रमाण के फलभूत सिद्धि को 'स्वार्थ विनिश्चय' शब्द से व्यक्त करते हैं तो कहीं तत्त्वार्थनिर्णय शब्द से। यद्यपि अष्टशती के लक्षण में 'अनधिगतार्थाधिगम' शब्द का प्रयोग किया, किन्तु इस पर उनका भार नहीं रहा। अकलङ्कदेव ने बौद्धसम्मत अविसंवादि ज्ञान की प्रमाणता का खण्डन इसलिए किया है कि उनके द्वारा प्रमाणरूप से स्वीकृत निर्विकल्पज्ञान में अविसंवाद नहीं पाया जाता है। सन्निकर्ष की प्रमाणताका निराकरण इसलिए किया है कि उसमें अचेतन रूपता होने के कारण प्रभा के प्रति साधकतमत्व नहीं आ सकता है। अकलङ्कदेव ने अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इन चार मतिज्ञानों में पूर्व पूर्व का प्रमाण्य तथा उत्तर में फलरूपता स्वीकृत की है। उन्होंने ईहा और धारणा की ज्ञानरूपता का समर्थन किया है। अकलङ्कदेव ने ज्ञान के प्रति साक्षात् कारणता इन्द्रिय और मन की ही मानी है, अर्थ और आलोक की नहीं क्योंकि इनका ज्ञान के साथ अन्वय व्यतिरेक नहीं है। आचार्य सिद्धसेन ने प्रत्यक्ष का लक्षण करते समय न्यायावतार में 'अपरोक्ष' पद देकर प्रत्यक्ष का लक्षण परोक्षसापेक्ष किया था। अकलंङ्कदेव विशदज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं । इस लक्षण को सभी ने अपनाया है। अनुमान आदि से अधिक विशेष प्रतिभास वैशद्य है। चूंकि इन्द्रिय ज्ञान एकदेश से विशद है, अतः वैशद्यांश का सद्भाव होने से यह भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है। मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता और आभिनिबोधिक शब्दयोजना के पहले मतिज्ञान हैं और शब्दयोजना के बाद श्रुतज्ञान हैं। प्रायः सभी वादी स्मरण को गृहीत ग्राही मानकर अप्रमाण कहते आए हैं, किन्तु अकलङ्कदेव ने स्वविषय में अविसंवादी होने के कारण इसे प्रमाणता का दर्जा दिया है, जो अन्य प्रमाणों को प्राप्त था। प्रत्यभिज्ञान को मीमांसक ने इन्दिय प्रत्यक्ष में और नैयायिक ने मानस प्रत्यक्ष में अन्तर्भूत किया था तथा बौद्ध ने अप्रमाण कहा था, परन्तु अकलंङ्कदेव ने इसे स्वतंत्र प्रमाण मानकर इसी के भेद स्वरूप सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में नैयायिकादि के उपमान का अन्तर्भाव दिखाया है और कहा है कि यदि सादृश्यविषयक उपमान को पृथक् प्रमाण मानते हो तो वैधर्म्य विषयक और आपेक्षिक आदि प्रत्यभिज्ञानों को भी स्वतंत्र मानना पड़ेगा। व्याप्तिग्राही तर्क को न तो वादी प्रमाण कहना चाहते थे, और न अप्रमाण । प्रमाणों का अनुग्राहक मानने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। किन्तु अकलङ्कदेव ने कहा कि यदि तर्क को प्रमाण नहीं मानते हो तो उसके द्वारा गृहीत व्याप्ति में कैसे विश्वास किया जा सकेगा। अतः तर्क भी स्वविषय में अविसंवादी होने से प्रमाण है। अकलङ्कदेव ने कार्य, स्वभाव और अनुपलब्धि के सिवाय कारण हेतु, पूर्वचर हेतु, उत्तरचर हेतु और सहचर हेतु को पृथक् मानने का समर्थन किया है।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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