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तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्य विमर्श
- आलोक कुमार जैन
भारत की दर्शन परम्परा अतिप्राचीन है। भारतीय आस्था एवं परम्परा की आधारशिला दर्शन पर स्थापित है अथवा अन्योन्याश्रय सम्बन्ध कहना अधिक उचित होगा। दर्शन की धुरी द्रव्य, तत्त्व, पदार्थ के केन्द्र पर ही घूमती है। द्रव्य शब्द केवल दर्शन का ही नहीं, अपितु भारतीय वाङ्मय, संस्कृत, पालि, प्राकृत आदि समस्त प्राचीन शास्त्रीय भाषाओं का अत्यन्त प्रचलित शब्द है। चाहे काव्य हो या व्याकरण, तत्त्वमीमांसा हो या आयुर्वेदशास्त्र, इनमें द्रव्य का भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग होता है। पाणिनी ने भी द्रव्य की व्युत्पत्ति दो प्रकार से बतलाई है तद्धित में और कृदन्त प्रकरण में । तद्धित में भी दो प्रकार से है- प्रथम वृक्ष या काष्ठ का विकार या अवयव द्रव्य है। द्वितीय-जिस प्रकार लकड़ी मनचाहा आकार ग्रहण कर लेती है उसी प्रकार द्रव्य भी होता है। कृदन्त प्रकरण के अनुसार द्रव्य की उत्पत्ति द्रु धातु से कर्मार्थक 'यत्' प्रत्यय से होती है जिसका अभिप्राय है प्राप्तियोग्य अर्थात् जिसे अनेक अवस्थायें प्राप्त होती हैं। दार्शनिक परिभाषा में द्रव्य इस प्रकार परिभाषित किया गया है- “अद्रव्यत् द्रवति द्रोष्यति तास्तान् पर्यायान् इति द्रव्यम्" अर्थात् जो विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त हो रहा है और होगा वह द्रव्य है। जो अवस्थाओं के विनाश होते रहने पर भी ध्रुव बना रहता है वह द्रव्य है।
सत् सत्ता अथवा अस्तित्व द्रव्य का स्वभाव है। वह अन्य साधन की अपेक्षा नहीं रखता। अतः अनादि अनन्त है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से उत्पन्न नहीं होता। सभी द्रव्य स्वभाव सिद्ध हैं क्योंकि वे सब अनादिनिधन हैं। अनादिनिधन को किसी अन्य की अपेक्षा नहीं होती। द्रव्य सदैव स्थायी रहता है। सभी भारतीय दर्शन द्रव्य की मीमांसा करते हैं क्योंकि यही दार्शनिक मीमांसा का प्रमुख स्रोत है। दार्शनिक दृष्टि जगत्, जीव, उसके दु:ख
और दु:खों के उपाय के इर्द गिर्द ही घूमती है। उद्देश्य रूप द्रव्य के विषय में किसी भी दर्शन का मतभेद नहीं है परन्तु द्रव्य के स्वरूप एवं भेद में मतभेद दृष्टव्य है। जाति की अपेक्षा जीव पुद्गल आदि जितने पदार्थ हैं वे सब द्रव्य कहलाते हैं। द्रव्य शब्द में दो अर्थ छिपे हैं- द्रवणशीलता और ध्रुवता। जगत् का प्रत्येक पदार्थ परिणमनशील होकर भी ध्रुव है। अत: उसे द्रव्य कहते हैं। आशय यह है कि प्रत्येक पदार्थ अपने गुणों और पर्यायों का कभी उल्लंघन नहीं करता है।
चूँकि प्रस्तुत शोध-आलेख का विषय द्रव्य पर आधारित है एतदर्थ यहाँ तत्त्वार्थसूत्र के परिप्रेक्ष्य में इसका विवेचन किया गया है।
आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के पंचम अध्याय में द्रव्य के दो लक्षणों को वर्णित किया है। जिनमें से प्रथम लक्षण है “सद्दव्य लक्षणम्' अर्थात् सत् द्रव्य का लक्षण