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________________ 88 अनेकान्त 64/1 जनवरी-मार्च 2011 इसलिए वे आदरणीय हैं। प्रतिष्ठा पाठ आदि में इनका आह्वान रक्षा हेतु किया जाता है। पृष्ठ 620 में चतुर्निकाय देवों की पूज्यता के बारे में कहा है- 'पूज्यता की अपेक्षा श्री अरहंत भगवान् को सुदेव और रागीद्वेषी को 'कुदेव' कहा है। चतुर्निकाय के देवों के देवायु आदि का उदय होने से उनको देव कहा है। पूज्यता की अपेक्षा से उनको देव नहीं कहा गया है।' क्या पं. रतनचन्द जी मुख्तार साहब को भी तंत्र-मंत्र मूढ़ कहा जायेगा ? उपसंहार मनुष्य लोक के तीर्थंकरों की मूर्तियों की पूजा देवलोक के सभी जीवों द्वारा प्रतिदिन भक्ति पूर्वक की जाती है। जिनेन्द्र भगवान् उनके उपास्य हैं, देवगण उपासक देवलोक में देवी-देवताओं, यक्ष-यक्षणी आदि की उपासना नहीं की जाती। वहां कोई शासनरक्षक भी नहीं होता। देवलोक के जिनालयों की अनुकृति कर मनुष्यलोक में जिनेन्द्र देव के अलावा किसी अन्य देवी-देवता, यक्ष यक्षणी की पूजा या उपासना करना घोर विद्रूपता एवं आगम-विरुद्ध कार्य है। मनुष्य भव सम्हालें। जो कार्य असंयमी देव नहीं करते, वह कार्य संयम साधक मनुष्य कैसे कर सकते हैं? श्रमण और वैदिक संस्कृतियों में आधारभूत अंतर है। वैदिक संस्कृति के प्रतिमानों, उपास्य-उपासना की पद्धति का श्रमण संस्कृति में समावेश करने का प्रयास उचित नहीं है। देवलोक में कौन उपास्य है और कौन अनुपास्य है। इसका आगमिक वर्णन किया है। इसमें सुधार हेतु पाठकों के सुझाव आमंत्रित हैं। -बी-369, ओ. पी. एम. कालोनी, पोस्ट- अमलाई, जिला-शहडोल (4030)-484117
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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