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________________ अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 सष्टि न्यासस्थितिन्याससंहतिन्यासतास्त्रिधा।। जयसेन प्रतिष्ठा पाठ, 376 11. हलो बीजानि चोक्तानि स्वराः शक्त्यः ईरिताः। - वही, 377 12. डॉ. ने. च. शास्त्री, मं0 ण एक अनुचिंतन, प्रस्तावना, पृष्ठ 18 13 छहढाला, ढाल, 3/17 14. ज्ञानपीठ-पूजाञ्जलि, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, दसवां संस्करण 1997, पृष्ठ,26 15. डॉ. ने. च. शास्त्री, मं. ण एक अनुचिंतन, आमुख, पृष्ठ, 9 16. क्षुल्लक जैनेन्द्र वर्णी, जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग-3, पृष्ठ 246 -एसोसिएट प्रोफेसर संस्कृत II-ए-78 नेहरूनगर, गाजियाबाद (उ०प्र०) लक्ष्मी का उपयोग जो वड्ढमाण लच्छिं अणवरयं देहि धम्मकज्जेस। सो पंडिएहिं थुव्वदि तस्स वि सहला हवे लच्छी॥१९॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा अर्थात् जो व्यक्ति पुण्य के उदय से बढ़ती हुई लक्ष्मी का सदुपयोग धार्मिक कार्यों जैसे-पूजा-प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, पात्रदान, ज्ञानदान और परोपकार आदि में करता है वह व्यक्ति पण्डितों के द्वारा भी आदर के योग्य होता है। ऐसा करने से ही उसकी लक्ष्मी सफल होती है। अन्यथा पुण्य के प्रताप से प्राप्त हुई लक्ष्मी अशुभ कार्यों में लग जाने से पाप बन्ध में कारण बनती है। इसी को पापानुबन्धी पुण्य कहते हैं। अतः पुण्य के फल से पुण्य का ही बन्ध हो तो ही अच्छा है। इसको आचार्यों ने पुण्यानुबन्धी पुण्य कहा है जो वर्तमान में दुर्लभ है।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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