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जिनेन्द्र का लघुनन्दन- श्रावक
- जमनालाल जैन
'श्रावक' शब्द सामान्य 'गृहस्थ' शब्द से ऊँचा, अर्थ-गम्भीर और भावपूर्ण है। श्रावक शब्द का अर्थ शिष्य या सुनने वाला भी है। जैन और बौद्ध परंपरा के अनुसार 'श्रावक' वह है जो सद्धर्म पर श्रद्धा रखता है, गृहस्थोचित व्रत या दायित्वों का निष्ठापूर्वक पालन करता है, पाप-क्रियाओं से दूर रहता है और अपनी सीमा में आत्म-कल्याण के पथ पर चलते हुए श्रमणों या भिक्षुओं की उपासना करता है- उनके आत्मकल्याण में सहायक होता है; विवेकी और क्रियावान् होता है। कविवर बनारसीदास ने श्रावक को 'जिनेन्द्र का लघुनन्दन' कहकर उसे गौरव के शिखर पर चढ़ा दिया है। ऐसा सम्यग्दृष्टिसंपन्न श्रावक गृहस्थ होते हुए भी संसार-प्रपंच में लिप्त नहीं होता-गेही पै गृह में न रचै ज्यों जलतें भिन्न कमल है'। श्रावक अर्थात् सम्यक् श्रवण करने वाला, प्राणों से श्रवण करने वाला, समग्र चेतना से श्रवण करने वाला।
काल-प्रवाह के थपेड़े खाते-खाते आज श्रावक शब्द का अर्थ-गौरव भले ही खो गया हो, लेकिन तब भी वह शुचिर्भूत, शालीन, पवित्र, सरस, प्रतीतिपूर्ण निर्भय, निरामय, स्फटिकवत् निर्मल-स्वच्छ जीवन का कीर्तिकेश है। तीर्थकरों के धर्मसंघ का संवाहक श्रावक ही होता है, वही धर्मरथ की धुरी होता है। परम श्रावकत्व की पराकाष्ठा तक पहुंचे बिना मुनिधर्म के तपोमार्ग पर आरोहण संभव ही नहीं है। मुनि की प्रतिष्ठा का आधार श्रावक ही है।
जैन-आगम नाम से प्रसिद्ध प्राचीनतम प्राकृत वाङ्मय में श्रमण या अनगारधर्म का ही वर्णन विशेष रूप से मिलता है। बड़े-बड़े सम्राटों तथा श्रेष्ठि-पुत्रों ने ही नहीं, अतिमुक्तक जैसे छोटे-छोटे बालकों या किशोरों ने भी सीधे श्रमण-धर्म की दीक्षा लेकर तपस्या की और मुक्ति प्राप्त की। उपासकदशांग जैसे एकाध ग्रंथ में उपासकों के व्रती-जीवन का वर्णन अवश्य मिलता है। किन्तु प्रायः सारा आगम-वाङ्मय श्रमण-जीवन अंगीकार करने वालों की कथाओं से भरा है। आगमयुग के पश्चात्वर्ती काल में ही श्रावकाचार-प्रतिपादक ग्रंथों की रचना की ओर आचार्यों का ध्यान गया है। आगम-युग में और संभवत: भगवान् महावीर की दृष्टि में अनगारधर्म ही कर्ममुक्ति के लिए आवश्यक समझा गया था। बड़े-बड़े संपत्तिशाली गृहस्थपुत्र और राजपुत्र भरी जवानी में पाँच-पाँच सौ पत्नियों को बिलखती छोड़कर श्रमणपथ पर चल पड़ते हैं। और वैभव भी कैसा? भद्रापुत्र शालिभद्र की 32 पत्नियों ने बीस-बीस लाख स्वर्णमुद्राओं के रत्नकम्बल पैर पोंछकर यों फेंक दिया मानो पुछन्ना हो! धनलिप्त लोगों को वैभव के नशे से विरत करने के लिए सर्वस्व त्याग का मार्ग ही आवश्यक था। महावीर जिस प्रकार की सामाजिक या धार्मिक क्रान्ति का सपना