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________________ अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 वह संसार में भटक रहा है। पूज्य क्षुल्लक मनोहर लाल वर्णी ने कहा है मैं वह हूँ जो हैं भगवान् जो मैं हूँ वह हैं भगवान्। अन्तर यही ऊपरी जान वे विराग यहाँ राग वितान। मम स्वरूप है सिद्ध समान अमितशक्ति सुख ज्ञान निधान। किन्तु आशवश खोया ज्ञान बना भिखारी निपट अज्ञान॥ -आत्मकीर्तन काला और नाटा होने के कारण ऋषियों ने वेनपुत्र को गर्हित बतलाया और उसकी संतान परंपरा विन्ध्याचल वासी हो गयी। उस निषाद नामक पुत्र ने भी वेदपरंपरा को नहीं माना होगा न विष्णु को ईश्वर माना होगा अतः वह और उसके वंशज विन्ध्याचल में रहने को विवश हुए। इसका तात्पर्य यह हुआ कि निषाद जाति भी वेदबाह्य थी और वैदिकेतर धर्म का पालन करती थी, अतः ऋषियों ने उन्हें पापकर्मरत माना। भिन्न धर्मों के लिए इस प्रकार के विशेषण देना कोई आश्चर्य की बात नहीं। विष्णुपुराण से यह भी द्योतित होता है कि पृथु ऋषियों के अनुकूल सिद्ध हुआ अतः ब्राह्मणों ने उसके वेदबाह्य यज्ञनिंदक पिता को भी स्वर्ग पहुंचा दिया। जैन परंपरा में जिनेन्द्र भगवान् को यज्ञपुरुष के रूप में वर्णित किया है आलम्बनानिविविधान्यवलम्ब्य वल्गन्। भूतार्थ यज्ञपुरुषस्य करोमि यज्ञ॥ जैनधर्म विष्णु को यज्ञपुरुष के रूप में स्वीकार नहीं करता है। इन सब तथ्यों से यह स्पष्ट है कि वेन, उसका पुत्र निषाद तथा उसके वंशज वैदिक धर्मानुयायी न होकर जैनधर्मी या श्रमणधर्मी थे। वे ब्राह्मणों को दानादि नहीं करते थे। विष्णु पुराण में स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत, प्रियव्रत के आग्नीध्र, आग्नीध्र के नाभि और नाभि के पुत्र ऋषभ के होने का वर्णन है। यहाँ उनकी माँ का नाम मेरुदेवी कहा गया है। वैदिक परंपरा उन्हें यज्ञप्रणेता मानती है किन्तु यहाँ यज्ञ से तात्पर्य हिंसात्मक यज्ञ से कदापि नहीं है। श्रमण परंपरा ऋषभदेव को प्रथम तीर्थकर मानती है। विष्णुपुराण ऋषभदेव का वर्णन किञ्चित् भिन्न रूप में करता है। ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए, जिनमें भरत सबसे बड़े थे। महाभाग राजा ऋषभदेव धर्मपूर्वक राज्य चलाते हुए अनेक यज्ञों का अनुष्ठान कर अन्त में भरत को राज्य देकर तप करने के लिए पुलहाश्रम में गए। उन राजा ने वानप्रस्थ पूर्वक दृढ़ तप किया। तप से वे अत्यन्त कृश हो गए। अन्त में नग्नावस्था में अपने मुख में पत्थर की वाटिका रखकर जीवन त्याग दिया। ऋषभदेव ने वनगमन करते समय अपना राज्य भरत को दिया, तभी से यह हिमवर्ष भारतवर्ष कहा जाने लगा। भरत के सुमति नामक अत्यन्त धार्मिक पुत्र हुआ। भरत ने यज्ञ करते हुए इच्छानुरूप राज्य भोगकर अपने पुत्र सुमति को राज्य दे दिया। पुत्र को राज्य देकर भरत योगाभ्यासपरायण हुए और उन मुनि ने शालग्राम क्षेत्र में अपने प्राण त्याग दिए। अगले जन्म में वे योगियों के पवित्र कुल में उत्पन्न हुए।"
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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