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संपादकीय
हार्दिक श्रद्धाञ्जलि
जैन समाज के सूक्ष्म तत्त्वों को समुद्घाटित करने में सतत संलग्न, व्यवहार में वज्र से भी कठोर किन्तु स्वभाव में कुसुम से भी अधिक सुकुमार श्री पं. पद्मचन्द्र जैन शास्त्री जी का 2 जनवरी 2007 (1 जनवरी 2007 की मध्यरात्रि) में अवसान हो गया था। वे वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित अनेकान्त के पर्याय के रूप में विख्यात थे। उनकी स्पष्ट अवधारणा थी कि जैन धर्म का मूल अपरिग्रहवाद है। जब तक समाज परिग्रह की खाई से नहीं उबरता है, तब तक वह धर्म के मर्म को नहीं समझ सकता है। चाहे कोई साधारण गृहस्थ हो, प्रतिमाधारी श्रावक हो या साधु परमेष्ठी हो, उन्होंने कभी भी उनके भय से सिद्धान्त से समझौता नहीं किया। प्राकृत भाषा के तो विशिष्ट अध्येता विद्वान् थे। मैंने जनवरी 2000 से उनके आदेश से अनेकान्त का संपादन दायित्व सम्हाला था। संपादनकाल में 7 वर्ष तक मुझे उनका आशीर्वाद/ परामर्श सतत मिलता रहा। आज विगत चार वर्ष से वे हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु अब भी मैं जब भी किसी तरह की उलझन में होता हूँ, तो उनके वचनों को अपनी स्मृति में सदा पाता हूँ। उनकी पुण्यतिथि पर नम नेत्रों से, मैं समादरणीय पण्डित जी को हार्दिक श्रद्धाञ्जलि समर्पित करता हूँ तथा आशा करता हूँ कि इस दीपस्तंभ की स्मृति से मैं उनके मार्ग के अनुकरण का जो प्रयास कर रहा हूँ, उसमें मुझे सफलता मिलेगी। प्राकृत भाषा के विकास में भारत सरकार का सहयोग
राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान (मानित विश्वविद्यालय) मानव संसाधन विकास मंत्रालय भारत सरकार के अधीनस्थ एक संस्कृत भाषा का उत्कृष्ट संस्थान है। इसके जयपुर परिसर में प्राकृत भाषा विषयक अनेक शोध परियोजनायें गतिशील हैं। माननीय कुलपति प्रो. राधाबल्लभ त्रिपाठी द्वारा मनोनीत विशेषज्ञ के रूप में मुझे समस्या समाधान एवं सुझाव/ निर्देश हेतु 17 जनवरी से 23 जनवरी तक वहाँ समस्या समाधान करने का अवसर मिला। प्राचार्य प्रो. अर्कनाथ चौधरी तथा प्राकृत अध्ययन शोध-केन्द्र के विकास अधिकारी डॉ. धर्मेन्द्र जैन का मधुर एवं समर्पित व्यवहार अनुकरणीय है। यदि जैन समाज प्रयत्नशील होकर माननीय कुलपति जी से संपर्क/ निवेदन करे तो यह प्राकृत अध्ययन शोध केन्द्र स्थायी हो सकेगा तथा अन्य परिसरों में भी प्राकृत अध्ययन की व्यवस्था हो सकेगी। प्रो. दामोदर शास्त्री जी भी प्राकृत के विकास के लिए सतत प्रयासशील हैं। इसी क्रम में 14-16 मार्च 2011 को लखनऊ परिसर में भी जाने का अवसर मिला। प्राचार्य प्रो. सुरेन्द्र कुमार झा, प्रोफेसर विजय कुमार जैन एवं डॉ. राका जैन के आत्मीय व्यवहार की जितनी प्रशंसा की जाये, वह कम है।