SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 रहता था। 'श्रावणिक' नामक कर्मचारी मुकदमों के समय वादी तथा प्रतिवादी को पुकारने तथा उन्हें न्यायालय के आदेश पहुंचाने का कार्य करता था। 'बलदर्शक' न्यायालयों के निर्णयों, विशेष रूप से ऋण संबन्धी निर्णयों का पालन करता था। न्यायालय द्वारा दिये गये दण्ड को कार्यान्वित करने का कार्य 'कालपाशिक' नामक कर्मचारी द्वारा किया जाता था। फौजदारी मुकदमों में निर्णय होने पर दण्ड देने की व्यवस्था का कार्य 'दण्डपाशिक' नामक कर्मचारी द्वारा किया जाता था। मृत्युदण्ड, 'घातक' अथवा 'बोधिक' नामक कर्मचारी द्वारा दिया जाता था। अभिज्ञानशाकुन्तल में विवरण मिलता है कि राजा के न्याय करने वाले कुछ अधिकारी भ्रमण करते हुए यह देखते थे कि प्रजा निर्बिघ्न रूप से कार्य कर रही है अथवा नहीं। अपराधी का पता लगाने के लिए गुप्तचरों या गूढपुरुषों की सहायता भी ली जाती थी। संदर्भ 1. आपस्तम्ब; 1/1/1/2-3 2. महावीरचरित 4/36-37 3. मनुस्मृति, 12/08-15 4. पाराशर 8/9/35, याज्ञवल्क्य , 1/1 5. शुक्रनीति, 4/552-54 6. अर्थशास्त्र, 3/1/56-57 7. शुक्रनीति, 4/586-87, याज्ञवल्क्य , 2/5 8. बुद्धचरित, 1/82 9. मनुस्मृति, 8/336 10. बृहस्पतिस्मृति, 1/34 11. रघुवंश, 1/6 12. अविमारक, 1/12 13. मालविका; अंक-1 पृष्ठ 179 14. बुद्धचरित, 1/82 15. उत्तररामचरित, 1/7 16. मुखर्जी, राधाकुमुद, दी हिन्दू जुडिशयल सिस्टम, पृष्ठ 64-65 17. पद्मप्राभृतक, श्लोक 17, पादताडितकभाण, पृष्ठ 213 18. मृच्छकटिक, अंक 9 19. यात्रा धिक्रियते स्थाने धर्माधिकरणं हि तत्।। व्यवहार-प्रकाश, पृष्ठ 15 20. अरोरा, नताशा, प्राचीन भारत में न्याय व्यवस्था, पृष्ठ 66-87 21. पादताडितक, पृष्ठ 213 22. कुलशील गुणोपेतः सत्यधर्म परायणः। प्रवीण:पेशलो दक्षो धर्माध्यक्षो विधीयते। राजनीति रत्नाकर, पृष्ठ 18 23. अजिझैः सारगुरुभिः स्थिरैः श्लक्ष्णैः सुजन्मभिः। मत्तविलास प्रहसन, श्लोक 18 24. वैश्यं वा धर्मशास्त्रज्ञं शूद्रं यत्नेन वर्जयेत्।। व्यवहारप्रकाश, पृष्ठ 13-14 25. परमात्माशरण, प्राचीन भारत में राजनैतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ 206 26. रघुवंश, 17/39 27. जायसवाल, के. पी.; हिन्दू राज्य-तंत्र, पृ. 305, मृच्छकटिक, अंक-9,चिन्तासक्तनिमग्नमंत्रिसलिलम्
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy