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________________ अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 39 हुए कहा गया है कि वह आवश्यकता पड़ने पर अंगच्छेदन भी करता है। न्यायालय विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों, नियुक्तों-अनियुक्तों एवं चरों आदि से सत्य की जानकारी प्राप्त करके ही विधि का कार्यान्वयन करता है, क्योंकि सत्य का ज्ञान प्राप्त करना ही न्याय का मुख्य उद्देश्य है। प्राचीन भारत में राजा विधिनिर्माण के स्थान पर न्यायिक प्रशासन का नेतृत्व करता था। न्यायाधीशों पर भी विधि के अतिरिक्त अन्य कोई दबाव नहीं था। कार्यपालिका और न्यायपालिका के क्षेत्र अलग-अलग निर्धारित थे। यद्यपि दोनों का अध्यक्ष एक ही होता था। न्यायिक प्रशासन में समाज द्वारा स्वीकृत नियमों का विशेष प्रभाव था और न्यायिक प्रशासन भी सामाजिक परिवर्तनों को स्वीकार करता था। अश्वघोष के अनुसार न्याय का मुख्य उद्देश्य राष्ट्र में सुख और समृद्धि का प्रसार करना था, ताकि सबल व्यक्ति दुर्बलों को न सताने पाए। दण्ड्य व्यक्ति दण्ड से मुक्त न हो और अदण्ड्य व्यक्ति दण्डित न हो। प्राचीन भारत में राज्य प्रशासन का महत्त्व न्यायिक प्रशासन में अधिक नहीं था और वह स्वयं ऐसा कोई आदेश नहीं कर सकता था, जो देशदृष्ट एवं शास्त्रसम्मत नियमों के विरुद्ध हो। स्वाभाविक रूप से प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों में अनेक ऐसे निर्देश विद्यमान हैं, जिनसे पता चलता है कि स्वयं राजा भी विधि के अधीन था और न्याय से ऊपर नहीं था। अपराध सिद्ध हो जाने पर राजा भी दण्डित होता था। मनुस्मृति में स्पष्ट व्यवस्था दी गयी है कि जिस अपराध के लिए साधारण व्यक्ति को एक कार्षापण का दण्ड दिया जाए, उसके लिए राजा को एक सहस्र कार्षापण का दण्ड दिया जाना चाहिए।' प्राचीन भारतीयशास्त्रों के अनुसार राज्य का सर्वोच्च अधिकारी राजा को माना गया है और उसे 'न्याय का आस्पद' कहा गया है। न्याय करना राजा के पद का कर्त्तव्य माना गया है। भास के अनुसार राजा दुष्टों को दण्ड देकर प्रजा के पारस्परिक विवादों को शान्त कर राज्य में शांति स्थापित करता है। मालविकाग्निमित्र में राजा अग्निमित्र प्रजा को न्याय देने में संलग्न बताया गया है। राजा के लिए सबसे बड़ा यज्ञ उचित न्याय की व्यवस्था मानी गयी है, यही कारण है कि वह समाज और विधि की मर्यादाओं के अंतर्गत रहकर न्याय का आयोजन करता था। राजा का कर्त्तव्य था कि अपराधी को दण्ड मिले तथा निरपराध व्यक्ति दण्डित न होने पाये। बुद्धचरित में अश्वघोष ने राजा शुद्धोधन की धर्मनिष्ठा और कर्त्तव्यपरायणता का उल्लेख करते हुए कहा है कि राजा अपराध करने वालों को दण्ड देता था, यद्यपि उसे क्षमा का भी अधिकार था, किन्तु अपराधियों को छोड़ा नहीं जाता था। निष्पक्ष न्याय करने वाले राजा को वही फल मिलता है जो पवित्र यज्ञ करने से प्राप्त होता है। निरपराधियों को दण्ड देने वाले राजा के लिए न केवल नरक का भय था अपितु प्रजा भी उसके प्रति विद्रोह कर सकती थी। राजा द्वारा न्याय के नियमों का पालन न करने पर राज्य में क्रांति का भी भय हो सकता था। राजा स्वयं समस्त राज्य के विवादों का निर्णय नहीं कर सकता था अतः ग्रामस्तर से लेकर राष्ट्रस्तर तक के न्यायालयों की स्थापना करके उनमें न्यायाधीशों की नियुक्ति करता था। किन्तु अंतिम निर्णय राजा का ही मान्य होता था। राजा ही न्याय का अंतिम उत्तरदायी था। राजा कर्त्तव्यानुसार राजसभा में स्वयं उपस्थित
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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