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________________ अनेकान्त 64/1 जनवरी-मार्च 2011 कंगन आदि में जड़े होने पर शोभा पाते हैं। परन्तु हाथ की शोभा तो मणि-मोती जड़े कंगन से ही होती है। जैसा कि किसी ने कहा है पयसा कमलं कमलेन पयः पयसा कमलेन विभाति सरः । मणिना वलयं वलयेन मणिः मणिना वलयेन विभाति करः ॥ १ उसी प्रकार श्रावक-श्राविकाओं से मुनि आर्यिकाओं, साधु-साध्वियों की शोभा है, अस्तित्व है और मुनि आर्यिकाओं अथवा साधु-साध्वियों से श्रावक-श्राविकाओं की शोभा है तथा मुनि आर्यिकाओं और श्रावक-श्राविकाओं से समाज, संघ व राष्ट्र की शोभा है, वशर्ते कि दोनों अपनी सीमाओं का उल्लंघन न करें और अपने-अपने कर्त्तव्यों को समझें। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जैनसंघ एवं संस्कृति में आवक की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जैन साहित्य में निर्देशित श्रावक की आचार संहिता आज के अर्थप्रधान भौतिकतावादी युग में और अधिक प्रासंगिक हो गयी है। श्रावकाचार विषयक व्रतों/ नियमों का पालन करने से व्यक्ति स्वयं सुख, शांति एवं संतोष का अनुभव तो करता ही है, उसके साथ रहने वाले और संपर्क में आने वाले जन भी उससे प्रभावित होते हैं तथा सुख, संतोष एवं शांति का अनुभव करते हैं। श्रावकाचार के पालन से व्यक्ति घर, समाज एवं देश का सभ्य, सुशील एवं अनुकरणीय नागरिक बन जाता है और अन्त में अपने व्यक्तिगत, सामाजिक, धार्मिक कर्त्तव्यों का आचरण करते हुए आत्म कल्याण कर सकता है। परन्तु आजकल जिस तरह परंपरागत मूल्य एवं मर्यादाएँ निरंतर टूट रहीं हैं, उससे लगता है यदि यही क्रम रहा तो जिनधर्म एवं संस्कृति का ह्रास व लोप भी हो सकता है, अतः सभी को सतर्क जागृत एवं संभलने की जरूरत है। संदर्भ 1. 2. 35 चार्वाकमत के रूप में प्रसिद्ध कथन । श्रावकाचार: दिशा और दृष्टि, अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् ट्रस्ट, जयपुर सन् 2003, पृष्ठ 23 पर उद्धृत । संयमप्रकाश, श्रावकाचार: दिशा और दृष्टि, पृ. 24 पर उद्धृत । 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. वही, श्लोक 75 11. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, अनेकान्तविद्वत् परिषद् पद्य 141-147 वही, पृष्ठ 24 पर उद्धृत । तत्त्वार्थसूत्र और उनके टीकाकार आदि ।. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद् सन् 1994 श्लोक 66 श्रावकाचार: दिशा और दृष्टि, पृष्ठ 8-9 सागारधर्मामृत, श्रावकाचार: दिशा और दृष्टि, पृ. 151 पर उद्धृत । रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक 74 12. वही, पद्य 142 13. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, सन् 2005 पद्य 345 एवं टीका । 14. रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक 77 15. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, पद्य 347 एवं टीका। 16. सर्वार्थसिद्धि, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, सन् 2003, 7.21.703 एवं रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक 78
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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