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________________ अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 गुणस्थानों की संज्ञाओ का उल्लेख करते हुए नेमिचन्द्राचार्य कहते हैं मिच्छो सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य। विरदा पमत्त इदरो अपुव्व अणियट्टि सुहमो य॥ उवसंत खीणमोहो सजोगकेवलिजिणो अजोगि य। चोद्दस जीवसमासा कमेण सिद्धा य णादव्वा॥ गो.जी. ९-१० मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण संयत, अनिवृतिकरणसंयत, सूक्ष्मसांपरायसंयत, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली, अयोगकेवली ये चौदह गुणस्थान होते हैं तथा सिद्धों के गुणस्थानातीत अवस्था जानना चाहिए। ____ इन्हीं गुणस्थानों का धवल के परिप्रेक्ष्य में संक्षिप्त वर्णन किया जा रहा हैमिथ्यात्वगुणस्थान: मिथ्यात्वकर्म के उदय से तत्त्वार्थ के विषय में जो अश्रद्धान उत्पन्न होता है अथवा विपरीत श्रद्धान होता है, उसको मिथ्यात्व कहते हैं। आचार्य वीरसेन इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं- सन्ति मिथ्यादृष्टयः मिथ्या वितथा व्यलीका असत्या दृष्टिदर्शनं विपरीतैकान्त विनयसंशयाज्ञानरूपमिथ्यात्वकर्मोदयजनिता येषां ते मिथ्यादृष्टयः। मिथ्यादृष्टि जीव हैं। यहाँ पर मिथ्या, वितथ, व्यलीक और असत्य ये एकार्थवाची नाम हैं। दृष्टि शब्द का अर्थ दर्शन या श्रद्धान है। इससे यह तात्पर्य हुआ कि जिन जीवों के विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञानरूप मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न हुई मिथ्यारूप दृष्टि होती है, उन्हें मिथ्यादृष्टि जीव कहते हैं। ऐसे जीव देह, स्त्री पुत्रादि में अनुरक्त होते हैं, विषय कषाय से संयुक्त होते हैं और अपने आत्मस्वभाव से विरत होते हैं। बाह्य पदार्थों से अनुरक्त होने के कारण मिथ्या श्रद्धा युक्त जीवों को बहिरात्मा भी कहा जाता है। ये जीव नाना कर्मों से बद्ध संसार परिभ्रमण करते हैं। संसार में अनन्त आत्माएँ इसी गुणस्थान में रहती हैं। इसमें मिथ्या श्रद्धान के कारण संवर का अभाव है। धवल ग्रन्थ में मिथ्यादृष्टि जीव को एकान्त, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान इन पांच प्रकार के मिथ्या परिणामों से कलुषित कहा है। इन्हीं का वर्णन भी किया है। विपरीत श्रद्धानी इस जीव की दशा ऐसी होती है कि जिस प्रकार पित्त ज्वर से युक्त जीव को मीठा रस अच्छा मालूम नहीं होता, उसी प्रकार ऐसे जीव को यथार्थ धर्म अच्छा मालूम नहीं होता। यह जीव औदयिक भाव युक्त रहता हुआ दु:ख का ही भोक्ता होता है। सासादनगुणस्थान: इस गुणस्थान का स्वरूप निरूपित करते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी ने कहा है कि सम्यक्त्व की विराधना को आसादन कहते हैं, जो इस आसादन से युक्त है, उसे सासादन कहते हैं, किसी एक अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से जिसका सम्यग्दर्शन नष्ट हो गया है किन्तु जो मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न हुए मिथ्यात्व रूप परिणामों को नहीं प्राप्त हुआ है, फिर भी मिथ्यात्व गुणस्थान के अभिमुख है, उसे सासादन कहते हैं। सासादनगुणस्थानवर्ती का विपरीत अभिप्राय रहता है, अतः वह असदृष्टि ही
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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