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________________ जैनदर्शन में गुणस्थानः एक अनुचिन्तन -डॉ. श्रेयांसकुमार जैन आत्मा की प्राथमिक अवस्था अज्ञानपूर्ण होती है। यह प्रथम अवस्था निकृष्ट है। इस अवस्था से आत्मा अपने स्वाभाविक चेतना, चारित्र आदि गुणों के विकास के परिणाम स्वरूप उत्थान को प्राप्त करता है। शनैः शनैः इन शक्तियों के अनुसार उत्क्रान्ति करता हुआ वह आत्मा विकास की पूर्णकला को प्राप्त हो जाता है। विकास की पूर्णता गुणस्थानों द्वारा ही होती है। 'गुणस्थान' यह शब्द गुण+स्थान दो शब्दों के सुमेल से बना है। गुण का अर्थ आत्मशक्ति है और स्थान का अर्थ विकास की अवस्था है। इस प्रकार 'गुणस्थान' का अर्थ आत्मशक्तियों के विकास की अवस्था फलित है। गुणस्थान की परिभाषा बताते हुए आचार्य लिखते हैं जेहिं दुलक्खिजंते उदयादिसु संभवेहिं भावेहि। जीवा ते गुणसण्णा णिद्दट्ठा सव्वदरसीहिं॥ धवल पु.१/गो.जी.-८ कर्मों की उदयादि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन परिणामों से जीव लक्षित किये जाते हैं, उन्हें सर्वदर्शियों ने गुणस्थान इस संज्ञा से निर्दिष्ट किया है। इस परिभाषा के आधार पर कहा जा सकता है कि आचार्यों का आशय आत्मिक शक्तियों के आविर्भाव की उनके शुद्धकार्य रूप में परिणत होते रहने की तरतम भावापन्न अवस्थाओं से है। __ "आत्मा के गुणों को आवृत करने वाले कर्मों में मोह ही प्रधान है। मोहनीयकर्म के उदय से मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं। दर्शनमोहनीयकर्म के क्षयोपशम से मिश्रगुणस्थान होता है। दर्शनमोहनीयकर्म एवं चारित्रमोहनीयकर्म की अनन्तानुबन्धी चतुष्क के उपशम या क्षयोपशम या क्षय से चतुर्थ गुणस्थान होता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयाभाव से पञ्चम गुणस्थान होता है। प्रत्याख्यानावरणकषाय के उदयाभाव से 6 से 10 तक पांच गुणस्थान होते हैं। चारित्रमोहनीयकर्म के उपशम से 11वां तथा क्षय से 12वां गुणस्थान होता है। चार घातिया कर्मों के क्षय से 13-14 वां गुणस्थान होता है किन्तु 13वें गुणस्थान में शरीरनामकर्मोदय का कारण योग है और शरीरनामकर्मोदय के अभाव हो जाने से 14वें गुणस्थान में योग भी नहीं होता है। इस प्रकार इन 14 गुणस्थानों में से 1 से 12 तक के गुणस्थान दर्शनमोह और चारित्रमोहकर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम तथा क्षय से उत्पन्न होने वाले भावों के निमित्त से होते हैं। 13वां और 14वां गुणस्थान योग के सद्भाव और अभाव से होता है। इस प्रकार जो चौदह गुणस्थानों की उत्पत्ति जीवात्मा की बतायी है उन्हीं चौदह
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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