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________________ 54 तत्त्वार्थवार्तिक में वर्णित अणुव्रत और महाव्रत -प्राचार्य डॉ. शीतलचन्द जैन आचार्य अकलंकदेव द्वारा तत्त्वार्थसूत्र पर तत्त्वार्थवार्तिक ग्रन्थ लिखा गया है। इसमें प्रमेय का विचार आगमिक एवं दार्शनिक पद्धति से किया गया है। प्रस्तुत आलेख में अनुव्रत और महाव्रतों पर विचार किया जायेगा। जब व्रतों पर विचार करते हैं तो सर्वप्रथम व्रत के स्वरूप पर विचार करना भी आवश्यक है। तत्त्वार्थसूत्रकार लिखते हैं कि हिंसा, अनृत, अस्तेय, अब्रह्म तथा परिग्रह से विरति व्रत है । ' समन्तभद्राचार्य लिखते हैं कि अनिष्टपन और अनुपसेव्यपन के कारण छोड़ने के योग्य विषय से अभिप्रायपूर्वक जो निवृत्ति होती है वही व्रत है। पूज्यपाद आचार्य ने सवार्थसिद्धि में व्याख्या करते हुए लिखा कि प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है, वह व्रत है या यह करने योग्य है, यह नहीं करने योग्य है, इस प्रकार नियम करना व्रत है। आचार्य अकलंकदेव ने व्रत के स्वरूप पर विशेष विवेचना करते हुए लिखा है कि विरमण का नाम विरति है । चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशम के निमित्त से औपशमिक क्षायोपशमिक और क्षायिकचारित्र की प्रकटता होने से जो विरक्ति होती है, उसे विरति कहते हैं और अभिसन्धिकृत नियम व्रत कहलाता है। बुद्धिपूर्वक परिणाम या बुद्धिपूर्वक पापों का त्याग अभिसन्धि है यह ऐसा ही करना, अन्य प्रकार से निवृत्ति है, ऐसे नियम को अभिसन्धि कहते हैं। अर्थात् बुद्धिपूर्वक किया हुआ नियम सर्वत्र व्रत कहलाता है। शुभ कार्यों में प्रवृत्ति और अशुभ से निवृत्ति ही व्रत है।' व्रतमभिसन्धिकृतो नियम : व्रत को जो स्वरूप पूर्ववर्ती आचार्य समन्तभद्र ने बताया इसके बाद पूज्यपाद आचार्य ने भी प्रतिपादन किया परन्तु आचार्य अकलंकदेव ने अभिसन्धिकृतः का अर्थ बुद्धिपूर्वक परिणाम करके यह स्पष्ट कर दिया कि व्रत बुद्धिपूर्वक ही लिये जाते हैं। अतः इससे स्पष्ट है कि आज जो मुमुक्षुओं में यह धारणा बनती जा रही है कि व्रत तो सहज में होते हैं जब उसकी काललब्धि आयेगी तो व्रत सहज और स्वयं हो जायेंगे। अतः उक्त कथन से मुमुक्षुओं की यह 'सहज' की अवधारणा निर्मूल हो जाती है। आचार्य अकलंकदेव ने व्रतों को दो भागों में बाँटने का कारण सर्वप्रथम बताया है कि व्यक्तियों के आत्मभूत धर्मों के दैविध्य होने से व्यक्तियों के द्वैविध्य के समान उन धर्मों के भी दो भेद हो जाते हैं अर्थात् व्यक्ति के भेद से व्रत दो प्रकार के होते हैं- 'देश सर्वतोऽणुमहती' अर्थात् हिंसादि से एक देश विरक्त होना अणुव्रत और सम्पूर्ण रूप से
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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