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________________ जैन विद्या में अनुशासन जैन दर्शन की आचार संबन्धी विशेषताएँ अन्य भारतीय दर्शनों से महत्त्वपूर्ण हैं जैनाचार की मूलभित्ति अहिंसा है। अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन इस दर्शन में किया गया है वैसा अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। अहिंसा के मूल से अमृषवाद, अस्तेय, अमैथुन और अपरिग्रह के आदर्श उपस्थित होते हैं। यथा शक्ति जीवन को स्वावलम्बी, सम्यक्, पुरुषार्थी बनाकर, सादा सरल, संयमी, सचारित्रवान बनाना जैनाचार है। चित्तशुद्धि या मुक्ति के लिए अहिंसा की साधना अत्यन्त आवश्यक है। मानसिक, वाचनिक और कायिक अहिंसा की पूर्ण साधना वस्तु स्वरूप के यथार्थ ज्ञान के बिना संभव नहीं इसके लिए जैनाचार को समझना भी आवश्यक है। आचार के अन्तर्गत संयम, त्याग, तपश्चरण और ध्यान की गणना की जाती है। नि:संदेह जैन दर्शन का विकास तत्व ज्ञान की भूमि पर न होकर आचार की भूमि पर हुआ है। जीवनशोध की व्यक्तिगत मुक्ति-प्रक्रिया एवं समाज और विश्व में शान्ति स्थापन की पद्धति अहिंसा पर ही अवलम्ब्ति है। जैन दर्शन का विस्तार, जीवनशोधन और चरित्र वृद्धि के लिए हुआ है। उस ज्ञान या विचार का कोई विशेष मूल्य नहीं, जो जीवन में उतारा न जा सके। जिसके प्रकाश से जीवन आलोकित न हो सके। यही कारण है कि जैनदर्शन में ज्ञान की अपेक्षा चारित्र को अंतिम महत्त्व दिया गया है। तप और साधना के द्वारा वीतरागता प्राप्त की जाती है और उसी परम वीतरागता, समता या अहिंसा की दिव्यज्योति को विश्व में प्रसारित करने के हेतु तत्त्वों को साक्षात्कार किया जाता है। इस दर्शन में विचार साध्य नहीं, चारित्र साध्य है। जैनाचार का प्रमुख उद्देश्य जीव के अनादिकालीन मिथ्या रागद्वेष काम क्रोधादि के संस्कारों को नष्ट कर आत्मा की शुद्ध अवस्था को प्राप्त करना है। हमारा जीवन एक शक्तिशाली प्रवाह की भांति ही तो है। मन वाणी और इन्द्रियां हमारी प्रमुख शक्तियाँ हैं। जिस प्रकार मनुष्य अपने विवेक से जल, विद्युत, वायु आदि प्राकृतिक शक्तियों को नियंत्रित करके उसका उपयोग जीवन के विकास के साथ देश एवं समाज की उन्नति के लिए करता है। मन, वचन और इन्द्रियां जहां भी अनुशासन-बद्ध प्रवर्तन करती हैं, वहां अपने आप सुख, समृद्धि और शान्ति की त्रिवेणी प्रवाहित होने लगती संदर्भ: 1. 2. 3. 4. आचारांग सूत्र- (उपधान सूत्र) प्रथम उददेशक गाथा-23, प्राकृत काव्य सौरभ संपादकडॉ. प्रेमसुमन जैन, प्रकाशक- श्री तारक गुरू ग्रंथालय उदयपुर आचार्य अमितगति पंचसंग्रह-गाथा-107, प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ काशी-1957 आचारांग सूत्र- वही चतुर्थ उददेशक- गाथा-55,56 उत्तराध्यन सूत्र- (विनय सूत्र) गाथा-13,17 प्राकृत काव्य सौरभ संपादक-डॉ. प्रेमसुमन जैन, प्रकाशक-श्री तारक गुरू ग्रंथालय, उदयपुर। आचार्य पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि अध्याय- 9/16, प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली सं. 2005 5. - 21 महावीर भवन, सर्वऋतु विलास, उदयपुर (राज)
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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