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________________ अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 पाले जाते हैं। उन्हें इस विषय में अवश्य विचार करना चाहिए। ३. अपध्यान अनर्थदण्ड अपने व दूसरों के बारे में बुरा सोचना-विचारना अपध्यान कहलाता है। दूसरों की हार, जीत, मारना, बांधना, अंग छेदना, धन का चुराना आदि कार्य कैसे किये जायें, यह एवं इसी प्रकार का अशुभ चिंतन करना, अपध्यान की श्रेणी में आता है। इन सब का फल पाप बंध ही होता है। इस तरह के कार्यों में कितने गृहस्थ श्रावक अपने समय व शक्ति का अपव्यय करते हैं, इस पर सबको विचार करने की जरूरत है। ४. दुःश्रुति अनर्थदण्ड दुःश्रुति को अशुभश्रुति भी कहते हैं। हिंसा, राग-द्वेष, मिथ्यात्व, परिग्रह, आरंभ, दु:साहस, कामवासना, गर्व आदि को बढ़ाने वाली दूषित कथाओं को पढ़ना, सुनना, उनकी शिक्षा देना आदि कार्य दुःश्रुति के अन्तर्गत आता है। गन्दे मजाक, वशीकरण, कामभोग कथा, परदोषों की चर्चा सुनना भी दुःश्रुति कही जाती है। आजकल दूरदर्शन (टी.वी.) के विभिन्न चैनल्स पर जो फिल्म, धारावाहिक और अन्यान्य कार्यक्रम दिखाये जाते हैं वे सभी इस दुःश्रुति के अन्तर्गत आते हैं। कारण यह है इन कार्यक्रमों को देख सुनकर हृदय राग-द्वेषादि से कलुषित हो जाता है, इसलिए इन्हें सुनने के कारण इन्हें दुःश्रुति या अशुभश्रुति कहते हैं। यद्यपि इन कार्यक्रमों में कुछ एक कार्यक्रम ऐसे भी होते हैं जो घर परिवार व समाज के लिए उपयोगी व शिक्षा प्रदान करते हैं, परन्तु ऐसे कार्यक्रमों की संख्या नगण्य होती है। अतः इस संबन्ध में भी गृहस्थ को चिंतन करना चाहिए। ५. प्रमादचर्या विना प्रयोजन वृक्षादि का छेदना, भूमि का कूटना या खोदना, पानी का सींचना, अग्नि आरंभ, वायु आरंभ आदि पाप कार्य प्रमादाचरित या प्रमादचर्या कहलाते हैं।। अतिथिसंविभाग व्रत चार शिक्षाव्रतों में अतिथिसंविभाग एक ऐसा व्रत है, जिसका संबन्ध स्व-पर से अधिक होता है। भोजन करने के पहले साधु-संतों के लिए द्वार पर प्रेक्षण (देखा) किया जाता है। गृहस्थ श्रावक अतिथिसंविभाग व्रत के पालन हेतु व्रती आदि को भक्तिपूर्वक आहारादि कराता है। अतिथिसंविभाग का सरल सा अर्थ है- उचित मात्रा में अन्य लोगों को लाभ। इस तरह महाव्रती, व्रती अथवा अव्रती श्रावक, इन तीन प्रकार के पात्रों को स्वयं के लिए बनाए अथवा अपने परिवार के लिए तैयार किये गये पवित्र भोजनादि में से विभाग करके विधि पूर्वक दान देना, अतिथिसंविभाग कहलाता है। ___ मुनि या महाव्रती की रत्नत्रय साधना चलती रहे, इसके लिए उसका शरीर से स्वस्थ रहना परमावश्यक है। कहा भी गया है- शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्। शरीर की स्थिति बनाए रखने के लिए मूलभूत आवश्यकता भोजन है। अतः गृहस्थ श्रावक का परम कर्तव्य
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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