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________________ अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 जैन विद्या में अनुशासन -डॉ. ज्योतिबाबू शास्त्री धरती पर प्रतिवर्ष वर्षा के साथ ही सृजन का नूतन- क्रम प्रारम्भ होता है। एक बार पृथ्वी की प्यास बुझते ही चारों ओर हरियाली छा जाती है। बांध बनाकर एकत्रित किया गया, और नहरों के कूल-किनारों में अनुशासित करके बहाया गया वह पानी रेगिस्तान को भी हरा-भरा कर देता है। परन्तु जब कभी वही पानी बाढ का प्रकोप बनकर, एकदम अनियन्त्रित होकर लक्ष्य-विहीन और दिशा विहीन प्रवाहित होने लगता है तब उसी जल से प्रलय का दृश्य उपस्थित हो जाता है। चारों ओर विनाश ही विनाश दिखाई देने लगता है। बस ऐसे ही आज अनुशासन विहीन शिक्षा की स्थिति है। नियन्त्रण के अभाव में किया गया विकास प्रगति समृद्धि का कारण न होकर विनाश का कारण बन जाता है। जीवन के सारे स्वप्न उसमें विलीन हो जाते हैं। अनुशासित शिक्षा वह जल का प्रवाह है जो शक्ति संपन्न होता है। परन्तु उस शक्ति का उपयोग यदि अनुशासन के साथ होगा तो वह सृजन का कारण होगा और यदि लक्ष्य विहीन होकर अनियंत्रित ढंग से बहता है तो वही विनाश का कारण भी बन सकता है। अपने आप पर नियंत्रण करना ही सबसे बड़ा अनुशासन है- अपने आप पर नियंत्रण किये बिना इन्द्रिय संयम नहीं होता और इन्द्रिय संयम के बिना जीव स्वयं की स्वाधीनता मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते। कहा है No man is free who is not master of him self. "कोई भी आदमी मुक्त नहीं है जो अपने आपका स्वामी नहीं है" अर्थात जिसने विकार भावों को नहीं जीता है, अपने गुण रत्नों का स्वामी नहीं बना है वह आत्मसंयम नहीं पाल सकता। “निज पर शासन ही अनुशासन है।" आत्म संयम ही अनुशासन का मूल है। जैन विद्या के द्वादश अंगों में आचारांग का प्रथम स्थान है। इसके प्रणेता प्रबुद्ध साधक भगवान महावीर ने स्वयं निजपर शासन और इन्द्रिय संयम के द्वारा किसी प्रकार के भौतिक सुखों की कामना के बिना जिस चर्या को स्वीकार किया उसी का निरूपण आचारांग सूत्र में किया है एस विही अणुक्कन्तो, महणेण मईमया। वहुसो अपिडन्नेणं भगवया एवं रीयन्ते-त्ति बेमि॥१॥ अर्थात मतिमान प्रतिज्ञा रहित उन महान भगवान महावीर ने अनुशासित संयम पूर्ण आचरण किया एवं उसी को अपने जीवन में उतारने का अन्य को भी उपदेश दिया। स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र, कर्ण और मन पर नियंत्रण करना इन्द्रिय संयम है। पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय जीवों की रक्षा
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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