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________________ 36 जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित अहिंसा एवं विश्वशान्ति सेटेलाइट की दूरबीनी आँख उसे बखूबी देखकर उसको अपना टारगेट बना सकती है। आज अणुबमों की विसात पर विश्व, भय और अशान्ति के शिकंजे में कसता जा रहा है। ऐसे समय में अहिंसा दृष्टि का विकास आवश्यक हो गया है। हिंसा की मानसिक वैचारिक दुष्प्रवृत्ति ने विश्व को युद्ध के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। विश्व के राष्ट्र, आतंकवाद की काली छाया से त्रस्त हैं। अस्त्रशस्त्र की होड़ाहोड़ तथा अपने-अपने देश की सुरक्षा व शान्ति के लिए अस्त्र-शस्त्रों में प्रशिक्षण केम्प और परीक्षणों में बेहिसाब धन लगा रहे हैं। यदि यही धन उस देश के विकास कार्यों में लगने लगे, तो विश्व में सामंजस्य और शान्ति का एक नूतन आलोक नजर आ सकता है। १४. हिंसा बनाम अशान्ति का कारण हिंसा अशान्ति का पर्यायवाची है। हिंसा के मूल में एक और कारण है 'साधन शुद्धि' का अभाव। वर्तमान उपभोक्तावादी संस्कृति के विस्तारीकरण एवं अन्तर्राष्ट्रीय बाजारवाद ने, पूरी न होने वाली लालसाओं को प्रश्रय दिया है जिससे सामाजिक विषमता बढ़ी है। अस्तु विश्वशान्ति व अहिंसक समाज रचना में साधन शुद्धि एक महत्वपूर्ण आयाम है। पूरी दुनिया शान्ति से जीना चाहती है क्योंकि शान्ति के बिना विकास नहीं हो सकता। अनावश्यक संग्रहवृत्ति एवं व्यक्तिवाद ने मानव समाज में व्यर्थ की जरूरतों की सूची लम्बी कर दी है। व्यक्तिवाद से संवेदनशीलता का ग्राफ भी निरंतर गिरता जा रहा है। स्वार्थपरता व्यक्तिवाद को हवा देता है। अत: अहिंसा का एक और महत्त्वपूर्ण सूत्र है उपभोग का संयमीकरण। होता यह है कि उपभोग की सामग्री को अमीर लोग ज्यादा बटोर लेते हैं। परिग्रह की इस अप्रतिम लालसा में शोषण और शोषक का फर्क बढ़ता जाता है और यह स्थिति अशान्ति का मूल कारण बन जाती है। अतः शान्ति का मूल जैनधर्म में अधिक संग्रह का त्याग करके 'परिग्रहपरिमाणव्रत' अंगीकार करने को कहा। यही व्रत अंतहीन इच्छाओं को सीमित कर समाज में शोषणवृत्ति, अविश्वास, ईर्ष्या-द्वेष को समाप्त कर सकता है। शान्ति की मैत्री सन्तोष धन से है जो जितना तृष्णा रहित सन्तोषी होगा वह निराकुल शान्ति का सहज वरण करता है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने तृष्णावान पुरुष पर एक यथार्थ व्यंग्य किया है परिग्रह प्रियता के कारण, जीवन का काल बीतते हुए उसकी धनवृद्धि हो जाती है जो उसको प्रिय लगती है, परन्तु इस तृष्णा में वह यह भूल जाता है कि काल बीतने से उसकी आयु भी क्षीण हो रही है। आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्ष, हेतु कालस्य निर्गमम्। वांच्छतां धनिनामिष्टं, जीवितात्सुतरां धनम्॥५॥१९ अतः शान्ति चाहने वाले को आयु का सार्थक उपयोग कर अपने पुरुषार्थ को केवल धनवृद्धि के लिए नहीं लगाना चाहिए अपितु धर्म-वृद्धि भी करना चाहिए। १५. उपसंहार ___अहिंसा परम धर्म है। जीव के लिए अहिंसा से बढ़कर हितकारी मित्र और सुख शान्ति देने वाला दूसरा कोई नहीं है।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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