SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित अहिंसा एवं विश्वशान्ति सत्त्वेषु मैत्री: गुणिषु प्रमोद। क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वम्॥ माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तोः। सदा ममात्मा विदधातु देव॥ (सामायिक पाठ) ८. अध्यात्म के शिखर पुरुष आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में हिंसा डॉ. जयकुमार 'जलज' ने अष्टपाहुड के हिन्दी अनुवाद की प्रस्तावना में एक बोधपूर्ण वाक्य लिखा है कि 'जैन परम्परा में वे कुन्दकुन्द और उमास्वामी ही हैं जो आखिरी अदालत हैं।' समयसार कुन्दकुन्द स्वामी की वह अभिव्यक्ति है, जिसमें वह अपने आत्मानुभव को अतल गहराई से अभिव्यक्त करते हैं। उन्होंने अहिंसा को एक मौलिक अन्दाज या परिप्रेक्ष्य में व्याख्यापित किया है। कुन्दकुन्दाचार्य अपनी अमर कृति 'प्रवचन सार' में कहते हैं मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदस्स॥२१७॥ जीव मरे या न मरे, परन्तु अयत्नाचारी नियमतः हिंसक है। इसके विपरीत यदि यत्नाचारी व्यक्ति सावधानीपूर्वक चर्या या वर्तन कर रहा है, और अनजान में जीव का विघात हो जाये तो भी वह अहिंसक है। यह आगम दृष्टि है। रागादि के वशीभूत होकर प्रमाद अवस्था में जो भी प्रवृत्ति या कृत्य होता है, वह हिंसा के दायरे में आता है। उदाहरणार्थ- एक व्यक्ति वाण छोड़ता है, परन्तु लक्ष्य पर नहीं लगा और वह अपने पुण्य से बच गया। लेकिन उस व्यक्ति की परिणति तो मारने की थी। कर्मसिद्धान्त कहता है कि आप जिस दृष्टि से भरकर आये हो, उसी दृष्टि से बंध चुके हैं। आप हिंसक ही हो भले ही आपने उसके प्राणों का घात किसी योग से नहीं कर पाया हो। कालुष्य भाव, घोर हिंसा का निमित्त होता है। स्वयंभूरमण समुद्र का महामच्छ जब छः माह सोता है, तो उसका दो सौ पचास योजन का मुख खुला रहता है। उस समय अनेक जीव उसके मुख में आते व जाते रहते हैं। उस महामच्छ के कान में तन्दुल मच्छ बैठा हुआ सोचता है कि यदि मुझे इतना बड़ा शरीर मिलता, तो मैं एक को भी नहीं छोड़ता। कान के मल को खाने वाला वह तन्दुलमच्छ ऐसे कलुषित भाव करके भाव हिंसा से इतना पाप बंध कर लेता है कि मरकर सातवें नरक जाता है। इस प्रकार कषाय योग से यानी कालुष्य भावों से जो प्राणों का व्यपरोपण चल रहा है उससे निरन्तर हिंसा हो रही है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के इसी अभिप्राय को अमृतचन्द्राचार्य पुरुषार्थसिद्धयुपाय में निम्नांकित गाथा में स्पष्ट करते हैं व्युत्थानावस्थायां रागादिनां वशप्रवृत्तायाम्। म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा॥४६॥ रागादिक भावों के वश में प्रवृत्त हुई अयत्नाचार रूप प्रमाद अवस्था में, जीव मरे अथवा न मरे, परन्तु हिंसा तो निश्चय से होती ही है। जैनाचार्य विशुद्धसागर महाराज- पुरुषार्थ देशना में इसे अध्यात्मदेशना के रूप में
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy