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________________ अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 ६. आचार्य उमास्वामी और अहिंसा विवेचन जैन तत्त्व चिन्तन को सूत्रों में प्रस्तुत करने का कार्य उमास्वामी देव ने सर्वप्रथम किया। ईसा की दूसरी सदी के आचार्य उमास्वामी का तत्त्वार्थसूत्र इतना स्वांगीण है कि परवर्ती आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने इसकी टीका रूप सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ और भट्टअकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक जैसे महान ग्रन्थों का प्रणयन किया परन्तु किसी, नये सूत्र को अपनी ओर से नहीं लिखा। आचार्य उमास्वामी ने हिंसा को कितने व्यापक दृष्टिकोण से लिया। वे कहते हैं प्रमत्तयोगात्प्राण व्यपरोपणं हिंसा॥ अर्थात् प्रमाद से सहित व्यक्ति के योग अर्थात् मन, वचन, काय की क्रिया द्वारा प्राणों का वियोग करने से प्राणी की हिंसा होती है। प्राण आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं है। प्राण वियोग होने पर आत्मा को ही दुःख होता है। अत: वह हिंसा व अधर्म है। यहाँ विशेष ध्यातव्य यह है कि एक के भी अभाव में हिंसा नहीं होती। उक्त सूत्र से एक शंका उठायी जा सकती है कि केवल प्रमत्तयोग से हिंसा कैसे संभव है जबकि प्राणव्यपरोपण न हो? समाधान- 'प्रमादवान, प्रमत्तयोग से स्वयं के ज्ञानदर्शनादि भाव प्राणों का वियोग (घात) करने से अपनी हिंसा करता है फिर भले ही दूसरे प्राणी का वध हो या न हो। इस संदर्भ में अमृताचन्द्राचार्य कहते हैं कि कषाय सहित परिणाम होने से, वह पहले अपने आपको घातता है फिर पीछे चाहे अन्य जीव की हिंसा हो अथवा न हो। हिंसा रूप परिणमन होने से प्रमाद के कारण निरन्तर प्राणघात का सद्भाव बना रहता है। दूसरा प्रसंग यह है कि जल, थल एवं आकाश में स्थूल व सूक्ष्म दोनों प्रकार के जीव हैं। अप्रमत्त साधु द्वारा उनके प्राण वियोग होने पर वह अहिंसक बना रहता है, क्योंकि सूक्ष्म जीव न तो किसी से रुकते हैं न किसी को रोकते हैं अतः उनकी तो हिंसा होती नहीं है, परन्तु जो स्थूल जीव हैं उनकी वह यथाशक्ति रक्षा करता है, तब भला प्रयत्नपूर्वक रोकने वाले संयत के हिंसा कैसे हो सकती है? इस प्रकार जैनदर्शन में जैनाचार्यों द्वारा हिंसा व अहिंसा की इतनी सूक्ष्म व्याख्या की गई, जो अन्यत्र दुर्लभ है। ७. अहिंसा से सम्बन्धित भावनाएँ ___अहिंसा व्रत का निर्दोष पालन करने के लिए आचार्य उमास्वामी ने ये चार भावनाएँ निरूपित की हैं 'मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्वगुणाधिक क्लिश्यमानाविनेयेषु १२ अर्थात् प्राणीमात्र में मैत्री (मैत्री भाव में अभय एवं क्षमा भाव निहित रहता है) गुणीजनों में प्रमोद या हर्ष भाव, दुखी जीवों के प्रति करुणा तथा विरुद्ध चित्त या स्वभाव वाले दुर्जन व्यक्तियों में माध्यस्थ भाव (उदासीन वृत्ति) रखना चाहिए। आचार्य अमितगति ने अपने सामायिक पाठ में अहिंसा की इन भावनाओं को इस प्रकार उद्धृत किया है
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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