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अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 में कर्म आत्मप्रदेशों की ओर आते अवश्य हैं पर वे कषाय के अभाव में बंधते नहीं है। तुरन्त झड़/ गिर जाते हैं। इसी से अरिहन्तों के ईर्यापथ आस्रव होना ही कहा गया है।
कर्मसंगति से जीव दुःखी हैं- कर्म जड़ हैं, निर्बल है और जीव चेतन है, सबल है, अनन्त शक्ति संपन्न है, परन्तु अनादिकाल से कर्मों की संगति से चतुर्गति के भ्रमण के दुःखों को भोग रहा है। जैसे लोहे की संगति से अग्नि भी घनों से पीटी जाती है। किसी विचारक ने ठीक ही तो कहा है- 'कर्म बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई। अग्नि सहे घन-घात, लोह की संगति पाई।। (चन्द्रप्रभपूजन)
उपसंहार- जैनदर्शन का यह कर्मसिद्धान्त अनेक वैशिष्टय संपन्न है, जो विश्व के अनेक रहस्यों को उद्घाटित करता है। यह विश्व विविधता का तर्क पूर्ण वैज्ञानिक समुचित समाधान करता है। संसार-संचरण की सटीक सरल बोधगम्म व्याख्या करता है। कर्मबन्ध की प्रक्रिया का बोध कराके उससे मुक्ति हेतु मोक्षमार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा देता है तथा ईश्वरकर्तृत्ववाद, भाग्यवाद, नियतिवाद जैसी मिथ्या भ्रान्त एवं एकान्त मान्यताओं का युक्तिपूर्वक निराकरण करता है। कर्मविषयक सत्य तथ्यों को उद्घाटित करता है। जीव
और कर्मों के अनादिकालिक सम्बन्ध की उद्घोषणा कर सच्चे सुखशांति के सन्मार्ग को प्रकाशित करता है। आत्मा की अनन्तशक्तियों को उद्घाटित करने का मार्ग प्रशस्त कर उन्हें उद्घाटित करने की प्रेरणा देता है। थर्मामीटर की भांति जीव के ऊँच-नीच भावों/ परिणामों का परिचय कराता है। जीव और कर्म दोनों में स्वतंत्र सत्ता का दिशाबोध देता है। जैनसिद्धान्त और तत्त्वज्ञान में सुदृढ़ आस्था पैदा करता है। जीव को स्वयं के सुख-दु:ख का कर्ता-भोक्ता-हर्ता का बोध कराके संतोषी, स्वावलम्बी और आत्मनियंता बनने का प्रेरणा भी देता है। अस्तु जैनाभिमत यह कर्मसिद्धान्त जीवन और दृश्य जगत के अनेक रहस्यों को उद्घाटित कर चिंतकों तथा विचारकों को चमत्कृत करता है। संदर्भ:
1. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश- भाग-2, पृष्ठ-25 2. "जीवं परतंत्रीकृर्वन्ति स परतंत्री क्रियते वा यस्तानि कर्माणि, जीवेन वा
मिथ्यादर्शनादिपरिणामैः क्रियन्ते रति कर्माणि"- आप्तपरीक्षा- टीका-113/296 3. जैनधर्म (कर्मसिद्धान्त) पृष्ठ- 142-143 4. प्रवचनसार- गाथा 187- सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्दजी 5. जीवकृतं पणिामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये। स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र, पुद्गलः कर्मभावेन।।12।।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय- आ. श्री अमृतचन्द्र 6. गो. जीवकाण्ड- गाथा- 249 7. तत्त्वार्थसूत्र 8/2 तथा कर्मकाण्ड- गाथा-3 9. कर्मसिद्धान्त (कर्मबन्ध प्रकरण) पृष्ठ-83- श्री जिनेन्द्रवर्णी 9. द्रव्यसंग्रह- गाथा 7, “वण्ण-रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्चया जीवे।
णो संति अमुत्ति तदो, ववहारा मुत्ति बंधा दो।।7।।" 10. पद्मपुराण, सर्ग-10, पद्य-27 11. कष्टं पश्यत नर्त्यन्ते कर्मभि-जन्तवः कथम- पद्मपुराण- सर्ग-11, पद्य-923 12. एवमयं कर्मकृतै- भावैरसमाहितोऽपि युक्त इण।