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________________ 17 अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है, श्वेत रक्त-कणिकाओं में वृद्धि होती है, आभामंडल दीप्त/उदीप्त होता है। जीनोमथ्योरी के अनुसार जीनों की विविधतानुसार भाव, रोग, अंग-उपांग होते हैं। जीव में परिवर्तन के साथ जीनसंबन्धी भाव आदि में भी परिवर्तन होता है। प्रायश्चित विधि के अनुसार जो सच्चे भावों से दोषों को स्वीकार कर विनय करता हुआ पुनः दोष न करने की प्रतिज्ञा लेता है, उसके भावों में निर्मलता आती है, तनाव दूर होता है। गुरू भी उसे दोषमुक्त कर कम दण्ड देते हैं। इस विवेचना से यह सिद्ध होता है कि "अमूर्तिक सूक्ष्मभावों में बाहर के जड़ तथा चेतन पदार्थों को प्रभावित करने की विचित्र सामर्थ्य होती है। बन्ध के कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये 5 कर्मबन्ध के कारण कहे गये हैं। कषायसहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गल-स्कन्धों को जो ग्रहण करता है, वह बन्ध है। बंध योग्य सूक्ष्म पुद्गल वर्गणाएँ लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्त-अनन्त स्थित है। काजल की डिब्बी की भांति ये संपूर्ण लोक में परिव्याप्त है। अतः ये जीव के आत्मप्रदेशों में/ पर भी स्थित है। बंधयोग्य इन वर्गणाओं को 'विनसोपचय' कहते हैं। जीव के रागद्वेषादि भावों का निमित्त पाकर ये ही द्रव्यकर्म और नोकर्मरूप से परिणत हो जाती कार्मण-शरीर द्रव्यकर्म रूप कार्मण-वर्गणाओं से ही सूक्ष्म शरीर 'कार्मण-शरीर' की रचना हुई है। ये वर्गणाएं आत्मप्रदेशों पर एकक्षेत्रावगाही रूप से स्थित है। कार्मण-शरीर ही जीव का मूलभूत शरीर है, जो जीव की एक पर्याय समाप्त होने पर भी साथ नहीं छोड़ता। अनादिकाल से ही यह जीव के साथ बंधा चला आ रहा है। इसमें यद्यपि प्रतिक्षण कुछ पुराने कर्म झड़ते हैं और कुछ नये जुड़ते चले जाते हैं। संतानक्रम से यह शरीर ध्रुव बना रहता है। जीव के बाह्य शरीरों का और रागादिभावों का प्रेरक यही कार्मण शरीर है। इसका पूर्ण नाश (क्षय) होने पर ही मुक्ति होती है। मुमुक्षु साधक इसी मुक्ति को पाने हेतु सतत साधनारत रहते हैं। बन्ध-भेद प्रकृतिबन्ध स्थितिबन्ध अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध के भेद से बन्ध चार प्रकार का है। (क) प्रकृतिबन्ध- आत्मा के संबन्ध के साथ बन्ध को प्राप्त कर्मों में स्वभावों का प्रकट होना प्रकृतिबन्ध है। प्रकृति अर्थात् स्वभाव। जैसे नीम का स्वभाव कडुवा तथा ईख का स्वभाव मीठा होता है। जीव का स्वभाव जानना -देखना है और पुद्गल का स्वभाव रूप-रसादिरूप है। जैसा-जैसा चित्र-विचित्र योग तथा उपयोग यह जीव करता है वैसा-वैसा विचित्र स्वभाव इस कार्मण-शरीर में पड़ जाता है। जैसे यह औदारिक शरीर चलने-बोलने, देखने-सुनने आदि विभिन्न प्रकृतियों को पाकर अनेक अंगोपांग वाला हो जाता है वैसे ही यह एक कार्मण-शरीर भी विभिन्न स्वभावों को पाकर अनेक भेदों वाला हो जाता है। इस
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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