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________________ 16 कर्मसिद्धान्त के कतिपय तथ्यों का विवेचन-विश्लेषण केवल पांच वर्गणाएँ- (1) आहारवर्गणाएं (2) भाषावर्गणाएं (3) मनोवर्गणाएं (4) तेजोवर्गणाएं (5) कार्मणवर्गणाएं) ही जीव के द्वारा कर्मरूप से ग्रहण करने योग्य हैं। उन्हें जीव द्रव्यकर्म रूप से ग्रहण करता है और छोड़ता है। इनमें से कार्मण-वर्गणा से कार्मण-शरीरर, तैजसवर्गणा से तैजसशरीर और शेष तीन वर्गणाओं से शरीर, भाषा श्वासोच्छवास, द्रव्यमन आदि बनते हैं। इसे नोकर्म कहते हैं। इस प्रकार कर्म और नोकर्मये द्रव्यकर्म के दो भेद हैं। जीव जिस प्रकार योगों द्वारा कार्मण-वर्गणाओं को ग्रहण करता है, उसी प्रकार शरीर संबन्धी नोकर्म-वर्गणाओं को भी ग्रहण करता है। इसमें नामकर्म निमित्त होता है। जीव का उपयोग रूप भावकर्म संकल्परूप होने से गणनीय नहीं है, परन्तु स्थूलरूप से भावकर्म को चौदह प्रकारों में विभक्त किया गया है- मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा तथा तीन वेद। ये सभी मोह, राग, द्वेष में गर्भित हैं। मिथ्यात्व- मोह में, मान, लोभ, हास्य, रति और तीनों वेद- ये सात राग में तथा क्रोध, माया, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा- ये छह द्वेष में समाहित है। राग भी शुभ और अशुभ- दो प्रकार का है। दान, पूजा, दया, संयम, तप आदि शुभराग है। हिंसा, झूठ, चोरी आदि अशुभ हैं। शुभ को पुण्यकर्म और अशुभ को पापकर्म कहा गया है। द्वेष तो सर्वथा अशुभ/ पापरूप ही होता है। भाव से प्रभावित कर्म और कर्म से प्रभावित भाव- जैसे शराब पीने से पीने वाले के शरीर, मन, नाड़ीतंत्र, क्रियाकलाप प्रभावित होते हैं, वैसे ही जीव के योग (आत्मप्रदेशों के कंपन) एवं उपयोग (भाव विचार, संवेग-आवेग) से भी कर्म प्रभावित होते हैं। शुभ योग- उपयोग से कर्म परमाणु पुण्य-प्रशस्त/ सुखदायी कर्मरूप में परिणमन करते हैं तो अशुभ योग-उपयोग से ही वे कर्म परमाणु पाप (अशुभ-अप्रशस्त/दुःखदायी) कर्मरूप से परिणमन कर लेते हैं। शुद्धोपयोग से/ आत्मा के निर्मल परिणाम से कर्मपरमाणु पुण्य या पापरूप से परिणमन नहीं करते हैं। शुभ अशुभ और शुद्ध योग-उपयोग से केवल बंधने वाले नवीन पुद्गल परमाणुओं में भी परिवर्तित होते हैं। अर्थात् पूर्वबद्ध कर्म भी प्रभावित होते हैं। शुद्ध परिणामों से बंधे हुए प्राचीन कर्म-परमाणुओं के बन्धन में शिथिलता आती है और निर्जरा या क्षय हो जाता है। इस सिद्धान्त को मनोविज्ञान, शरीर विज्ञान, चिकित्साविज्ञान, जीनोमथ्योरी, विधि-कानून आदि भी स्वीकार करते हैं तथा अनुभव में भी ऐसा आता है। देखिए शरीर विज्ञान के अनुसार अच्छे भावों से शरीर-ग्रंथिओं से सवित रस बड़ा गुणकारी होता है और दूषित भावों से सवित रस हानिकारक होता है। प्रेम एवं वात्सल्यभाव से पिलाया गया माँ का दूध अमृत-तुन्य प्रभावक होता है तथा दूषित परिणामों से पिलाया दूध विषतुल्य बन जाता है। इसी तरह आत्मविश्वास अनुकूल सद्विचार आदि अच्छे परिणामों से रोग-प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है और रोग शीघ्र दूर हो जाते हैं। दुश्चिन्ता, क्रोध, ईर्ष्या, तनाव, आवेग-उद्वेग आदि दूषित भावों से विभिन्न शारीरिक मानसिक रोग होते हैं तथा दया, सेवा, क्षमा, परोपकार, नम्रता, सरलता और सद्विचारों में प्रायः आधि-व्याधि नहीं होतीं,
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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