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________________ 75 अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 कथाओं में राजा हरिश्चन्द्र को सत्य की मूर्ति के रूप में स्वीकार किया है। इस प्रकार भेदभाव से रहित होने के कारण सभी धर्मों के मूल नियमों में समानता देखी जाती है। अचौर्य व्रत : चोरी हिंसा का एक रूप है। अहिंसा के सम्यक् परिपालन के लिए चोरी का त्याग भी आवश्यक है। जब किसी की कोई वस्तु चोरी हो जाती है अथवा वह किसी प्रकार से ठगा जाता है तो उसे बहुत मानसिक पीड़ा होती है। उस मानसिक पीड़ा के परिणामस्वरूप कभी-कभी हृदयाघात भी हो जाता है। अतः चोरी करने से अहिंसा नहीं पल सकती तथा चोरी करने वाला सत्य का पालन नहीं कर सकता, क्योंकि सत्य और चोरी दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते। आचार्य उमास्वामी ने चोरी का कथन करते हुए कहा है। कि अदत्तादानं स्तेयम्" अर्थात् बिना किसी के द्वारा दी हुई वस्तु को ग्रहण करना चोरी कहलाती है तथा जिस पर अपना स्वामित्व नहीं है, ऐसी किसी भी पराई वस्तु को बिना अनुमति के ग्रहण करना चोरी है। श्रावक स्थूल चोरी का त्याग करता है। वह जल और मिट्टी के सिवाय बिना अनुमति के किसी के भी स्वामित्व की वस्तु का उपयोग नहीं करता। वह मार्ग में पड़ी हुई, रखी हुई या किसी की भूली हुई, अल्प या अधिक मूल्य वाली किसी वस्तु को ग्रहण नहीं करता । अचौर्यव्रती उक्त प्रकार की समस्त चोरियों का त्याग कर देता है, जिसके करने से राजदण्ड भोगना पड़ता है। समाज में अविश्वास बढ़ता है तथा प्रामाणिकता खण्डित होती. है । प्रतिष्ठा को धक्का लगता है। किसी को ठगना, किसी की जेब काटना, किसी का ताला तोड़ना, किसी को लूटना, डाका डालना, किसी के घर सेंध लगाना, किसी की संपत्ति हड़प लेना, किसी का गड़ा धन निकाल लेना आदि सब स्थूल चोरी के उदाहरण हैं। भारतीय दण्ड संहिता और भारतीय दर्शन चोरी को अपराध मानते हैं तथा चोरी करने वाले को पापी कहते हैं। इसी कारण प्राचीन समय में राजा चोरी करने वाले व्यक्ति के हाथ आदि कटवा देते थे। अत: सर्वविदित है कि चोरी अपराध है वही जैनदर्शन चोरी को सूक्ष्म और स्थूल के भेद से आवक और साधक को त्यागने का निर्देश करता है। ब्रह्मचर्य व्रत : यौनाचार के त्याग को ब्रह्मचर्य कहते हैं। गृहस्थ अपनी कमजोरी वश पूर्ण ब्रह्मचर्य ग्रहण नहीं कर पाता। उसके लिए विवाह का मार्ग खुला है वह कौटुम्बिक जीवन में प्रवेश करता है। उसके विवाह का प्रमुख उद्देश्य धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों का सेवन करना ही होता है। विवाह के बाद वह अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों को माता, बहिन और पुत्री की तरह समझता है तथा पत्नी अपने पति के सिवाय अन्य सभी पुरुषों को पिता, भाई और पुत्र की तरह समझती हुई दोनों एक दूसरे के साथ ही संतुष्ट रहते हैं। इसे ब्रह्मचर्याणुव्रत या स्वदारसंतोष व्रत कहते हैं। ब्रह्मचर्य को हिन्दु एवं जैनधर्म दोनों धर्म महत्त्वपूर्ण मानते हैं। हिन्दुओं में नागा साधुओं को सबसे उत्कृष्ट साधु माना जाता है। वे नागा साधु आजीवन ब्रह्मचारी रहते हैं, परन्तु जैन आगमों में कहा गया है कि ब्रह्मचर्यधारी जीव को इन्द्र भी नमस्कार करता है। जैनदर्शन में स्वदार संतोषी श्रावक को
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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