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________________ अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 यदि कोई मनुष्य सावधानीपूर्वक जीवों को बचाते हुए देखभाल कर चल रहा है, फिर भी यदि कदाचित् कोई जीव उसके पैरों के नीचे आकर मर भी जाए तो उसे तज्जन्य हिंसा संबन्धी सूक्ष्म पाप भी नहीं लगता, क्योंकि उसके मन में हिंसा का भाव नहीं है तथा वह सावधान है। 74 जैनदर्शन में अहिंसा को व्रत के रूप में स्वीकार किया गया है तथा उसकी रक्षा के लिए पाँच भावनाओं का विवेचन भी किया है। कहा है कि वाङ्मनोगुप्तीर्वादाननिषेक्षणसमित्यालोकितपानभोजनानि पंच' अर्थात् अहिंसा की रक्षा के लिए वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपण समिति और आलोकितपान भोजन का पालन करना चाहिए। इनके दोषों से बचने के लिए बंध, वध, छेद, अतिभारारोपण और अन्नपान निरोध का निषेध किया है। अन्य भारतीय दर्शनों में अहिंसा का इतना सूक्ष्म विवेचन अप्राप्य है, परन्तु धर्म निरपेक्षता के कारण अन्य दर्शनों में जैन अहिंसा के स्थूल रूप के समान अहिंसा को माना है। जिसमें दूसरे जीवों को काय से सताना, मारना तथा दुःख देना हिंसा कहा है तथा इनसे बचने का नाम अहिंसा कहा है परन्तु वचन और मन से की जाने वाली हिंसा को परिगणित नहीं किया है। सत्यव्रत : सत्यव्रत जैनधर्म का मौलिक तत्त्व है। अहिंसा की आराधना के लिए सत्य की उपासना अनिवार्य है। झूठा व्यक्ति सही अर्थों में अहिंसक आचरण कर ही नहीं सकता तथा सच्चा अहिंसक कभी असत्य आचरण नहीं कर सकता । सत्य और अहिंसा में इतना घनिष्ट संबन्ध है कि एक के अभाव में दूसरे का पालन हो ही नहीं सकता। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जिस झूठ से समाज में प्रतिष्ठा न रहे, प्रामाणिकता खण्डित होती हो, लोगों में अविश्वास उत्पन्न होता हो तथा राजदण्ड का भागी बनना पड़े, इस प्रकार के झूठ को स्थूल झूठ कहते हैं। सत्याणुव्रती आवक इस प्रकार के स्थूल झूठ का मन, वचन, काय से सर्वथा त्याग करता है, साथ ही वह कभी ऐसा सत्य भी नहीं बोलता जिससे किसी पर आपत्ति आती हो। वह अपनी अहिंसक भावना की सुरक्षा के लिए हित, मित और प्रिय वचनों का ही प्रयोग करता है। आचार्य उमास्वामी जी ने सत्य की परिभाषा में कहा है कि असदभिधानमनृतम्' अर्थात् असत् कहना झूठ है असत् के तीन अर्थ लिए जा सकते हैं पहला अर्थ जो बात नहीं है वह कहना, दूसरा अर्थ जैसी बात कही गई है वैसी न कहना, तीसरा अर्थ बुराई या दुर्भावना को लेकर किसी से कहना। इसे झूठ कहा गया है। अन्य भारतीय धर्मों में सत्य को ईश्वर का रूप कहा गया है। प्राचीन युग में एक कहावत थी कि इस संसार से यदि सत्य नष्ट हो जाए तो संसार समाप्त हो जाएगा। पारसी धर्म में नम्रता, दया, प्रेम, शान्ति के साथ सत्कथन अर्थात् सत्यता को भी धर्म की संज्ञा दी है।" बुद्ध ने अपने अनुयायियों के आचरण के लिए चार नियमों का प्रतिपादन किया जिसमें मृषावाद का अर्थ असत्य नहीं बोलने का निर्देश दिया है।" महाभारत काल में युधिष्ठिर को सत्य बोलन के कारण धर्मराज की उपाधि से भूषित किया गया था। पुराण
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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