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________________ जैन प्रतिमा विज्ञान -डॉ. अशोककुमार जैन इस भरत क्षेत्र में पञ्चम काल में साक्षात् तीर्थकर तथा अर्हतों का अभाव पाया जाता है। ऐसी स्थिति में उन अरिहन्तों की प्रतिमायें प्रतिष्ठित कर स्थापित की जाती हैं। टेलीविजन आदि विद्युतीय माध्यमों के युग में सहजतया इस विज्ञान को समझा जा सकता है। व्यक्ति के आंतरिक भाव उसकी मुखाकृति पर आ जाते हैं। उस अशांत एवं शांतमयी मुखाकृति को देखकर व्यक्ति के भीतर तदनुरूप शांत एवं अशांत भाव उदित होते हैं तथा वह व्यक्ति तत्काल उन भावों का अनुभव भी करता है। क्रोधी व्यक्ति को देखकर क्रोध के और वीतरागी एवं शांत भावयुक्त मुखाकृति को देखकर शांत एव समता भाव उदित होते हैं। अतः अपने भीतर में शांत भाव को उदित करने के लिए अरहंत वीतरागियों की आकृति वाली प्रतिमायें निर्मित की जाती हैं। जैनदर्शन में स्थापना का विशिष्ट स्थान है। किसी वस्तु में अपने इष्ट की परिकल्पना करना स्थापना कही जाती है। वह स्थापना दो प्रकार की होती है- अतदाकार और तदाकार। जो वस्तु परिकल्पना के अनुरूप आकार नहीं रखती और फिर भी उसका प्रतिनिधित्व करती है, वह अतदाकार स्थापना कही जाती है जैसे शतरंज की गोटियों में हाथी, घोड़े आदि की परिकल्पना, कागज के टुकड़े में धन की कल्पना, दो-तीन रंग के कपड़े के टुकड़ों के झण्डों में विशिष्ट समायोजन में देश के गौरव की कल्पना, पत्थर के टुकड़े में गाँधीजी के व्यक्तित्व की कल्पना। उक्त वस्तुयें अपने परिकल्पित इष्ट का प्रतिनिधित्व करती हैं। गांधी समाधि, देश के ध्वज का सम्मान और अपमान पूरे राष्ट्र के विशुद्ध व्यक्तित्व और गौरव का मान तथा अपमान है। दूसरी तदाकार स्थापना में वस्तु की आकृति स्थापित कल्पना के अनुरूप होती है, जैसे पिता के चित्र में पिता की स्थापना तथा शांत मुद्रांकित मूर्ति में अरिहंत की स्थापना। अतः मूर्ति विज्ञान अति प्राचीन तथा वैज्ञानिक है। धर्मोपदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचार में लिखा है- जिनभवन, जिनबिम्ब, जिनशास्त्र और मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ इन सात क्षेत्रों में जो धन रूपी बीज बोया जाता है, वह अपना है ऐसी मैं अनुमोदना करता हूँ। जिनबिम्ब, जिनालय, जिनप्रतिष्ठा, दान, पूजा और सिद्धान्त लेखन ये सात धर्म क्षेत्र हैं। जो मनुष्य बिम्बा पत्र की ऊँचाई वाले जिनभवन को और जौ की ऊँचाई वाली जिनप्रतिमा को भक्ति से बनवाते हैं, उनके पुण्य को कहने के लिए सरस्वती भी समर्थ नहीं है फिर दोनों को कराने वाले मनुष्य के पुण्य का तो कहना ही क्या है? वसुनन्दि श्रावकाचार में लिखा है मणि-कणय-रयण-रुप्पय-पित्तल- मुत्ताहलोवलाईहिं। पडिमालक्खविहिणा जिणाइपडिमा घडाविज्जा॥३९०॥
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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