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________________ अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 19 अपामार्ग! हम तेरे यथायोग के द्वारा (यातुधानान्) पीड़ाओं का अहित करने वाले कष्टों (रोगों) को दूर करके तथा सब अलक्ष्मियों को शोधकर उस सब अवांछनीय रोगमात्र को दूर कर देते हैं। अपामार्ग औषधि को अनेक रोगों में दिया जा सकता है। जैसे श्वांस रोग, फेफड़े में जमे हुए कफ रोग में, शरीर के अन्दर जख्म (घावों) में, बाहरी घावों में, पेट में जलन, एसिड, पीलिया रोग, यकृतरोग आदि में इसके विशेष प्रभाव हैं। इसके अलावा फूड पायजनिंग में यह औषधि शीघ्र प्रभाव वाली है। किडनी रोग वेदना में भी यह अपामार्ग शीघ्र प्रभाववाली प्रतीत होती है। आधा शीशी (आधे शिरदर्द) में जहाँ किसी दवा का प्रभाव न हो वहाँ अपामार्ग औषधि के पत्तों का स्वरस कान में डालने मात्र से आधा शीशी रोग की समाप्ति हो जाती है। ज्वर में भी अपामार्ग की पत्तियों के रस का प्रयोग लाभकारी सिद्ध हुआ है। दांत के रोगों में अपामार्ग की टहनी से दातून करने से पायरिया जैसे रोग को भी नष्ट किया जा सकता है। ____ अपामार्ग के बीजों की खीर बनाकर खाने से कई दिन भूख से विश्राम पाया जा सकता है। इसलिए अपामार्ग गुणों की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। हम इसका सावधानी से सेवन कर लाभ उठायें और जीवन सुखमय व नीरोग बनायें। अपमृज्य यातुधानामयसर्वा अरारसः। अपामार्ग त्वया वयं सर्व तदथ मृज्यहे॥ अथर्ववेद 4-18/8 संदर्भः 1. ईशानां त्वा भेषजानामुळ्ष आ रभामहे। चक्रे सहस्रवीर्य सर्वस्या औषधे त्वा।।अथर्ववेद 4-17-1 सत्याजितं शपथयावनी सहमानां पुनः सराम्। सर्वाः समह्वयोषधीरतो नः पारयादिति।। अथर्ववेद 4-17-2 याशशाप शपनेन याचं मूरमा दधे। या रसस्य हरणाय जातमारेमे लोकमत्तु सा। अथर्ववेद 4-17-3 4. यां ते चक्ररामे पात्रे यां चक्रुनील लोहिते। आमे मांसे कृत्यां यां चक्रुस्तया कृत्याकृतो जहि। अथर्ववेद 4-17-4 5. दौस्वप्नां दौर्जीवित्यं रक्षो अभ्व मराय्यः। दुर्णाम्निी: सर्वा दुर्वाचस्ता अस्मन्नाशयामसि।। 4-17-5 क्षुधामारं तृष्णामारमगोतामनपत्यताम्। अपामार्ग त्वया वयं सर्वं तदप मृज्महे।। 4-17-6 अथर्ववेद। अपामार्ग ओषधीनां सर्वासामेक इदृशी। तेन ते मृज्म आस्थितमथ त्वमगदश्चर।। 4-17-8 अथर्ववेद। 8. अपामार्गोऽयं माष्टुं क्षेत्रियं शपथश्च यः अपाह यातुधानीय सर्वा अराय्यः। अथर्ववेद 4-8/7 - प्राध्यापक निवास, एस. डी. कालेज परिसर मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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