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जैन अपरिग्रह की अवधारणा सूत्रकृतांग के विशेष संदर्भ में
-डॉ. वन्दना मेहता
संपूर्ण धर्म जगत् का एक मान्यता प्राप्त विचार है- अहिंसा परमो धर्मः अहिंसा का सभी धर्म तथा दर्शनों में सर्वोत्तम स्थान है। जैनदर्शन की तो प्रसिद्ध सूक्ति ही हैअहिंसा सव्वभूयखेमंकरी" और जैनदर्शन को अहिंसा का पर्याय माना जाता है। अहिंसा क्या है यह जानने से पहले इसका अर्थ जान लेना उचित लगता है "न हिंसा इति अहिंसा" अर्थात् हिंसा का न होना ही अहिंसा है प्राणों का अतिपात न करना सभी जीवों के प्रति संयम रखना ही अहिंसा है। जैनदर्शन में मुख्य रूप से 3 प्रकार की हिंसाओं का वर्णन मिलता है
1. संकल्पजा,
2. विरोधजा, 3. आरंभजा ।
संकल्पजा अर्थात् संकल्पपूर्वक किसी जीव की हिंसा करना । इसके पीछे कारण अपना स्वार्थ भी हो सकता है तो कोई पुराना बैर या द्वेष भी हो सकता है। इसमें व्यक्ति स्वेच्छा से किसी के प्राणों का हनन करने को उद्यत होता है। वहीं विरोधजा हिंसा दूसरे व्यक्ति के प्रतिकार स्वरूप होती है। इसमें सामने वाला व्यक्ति जब दूसरे पर आक्रमण करता है तो स्वहिताय और रक्षा के लिए वह उससे बचने की कोशिश करता है और जब वह बचने में असमर्थ हो जाता है तो उसके पास एक ही उपाय रहता है "करो या मरो " और वह दूसरे प्राणी की हिंसा में प्रवृत्त होता है। इसमें व्यक्ति प्रेरित होकर हिंसा करता है, लेकिन स्वेच्छा से नहीं। तीसरी आरंभजा हिंसा यह व्यक्ति अपने जीवन यापन और उसकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए करता है। जिसके बिना उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। इस प्रकार की हिंसा उसके जीवन को बनाये रखने के लिए होती
है।
भगवान् महावीर ने दो प्रकार के चारित्र धर्मों का प्रतिपादन किया- अगार धर्म और अनगार धर्म।' अनगार धर्म के आराधक मुनि कहलाते हैं उनके लिए तो सर्वप्रकार की हिंसा को त्याज्य बताया गया है किन्तु अगार धर्म को पालने वाले गृहस्थी को भी कम से कम हिंसा करने का उपदेश जैन आगमों में दिया गया है। उनके लिए कहा गया है। कि आवश्यक हिंसा और विरोधजा हिंसा उन्हें करनी पड़ सकती है किन्तु संकल्पजा तो उनके लिए सर्वथा त्याज्य है और आवश्यक हिंसा का भी सीमाकरण आवश्यक है।