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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 हेरेक्लाइटस प्रत्येक वस्तु को सापेक्ष मानते हैं वे कहते हैं कि समुद्र का पानी मछली के लिए मीठा और हमारे लिए खारा है। 'हम हैं भी और नहीं भी हैं'। हम 'सत्' भी हैं, 'असत्' भी हैं, और सदसदनिर्वचनीय भी हैं। जितने भी द्वन्द्व हैं, सब सापेक्ष हैंएक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। उदाहरणार्थं एक और अनेक अच्छा और बुरा, गति और स्थिति, परिणाम और सत्ता, जीवन और मरण, सर्दी और गर्मी आदि। (पाश्चात्यदर्शन, पृ.6-7) 84 यहाँ हम हेरेक्लाइटस के इस चिंतन की तुलना जैनदर्शन के अनेकान्त स्याद्वाद से कर सकते हैं। काफी कुछ चिंतन में साम्य दिखता है। यद्यपि हेरेक्लाइटस के सिद्धान्त कई स्थलों पर अपरिपक्व हैं किन्तु उनका चिंतन यह तो प्रमाणित करता ही है कि विरोध उनके अनुभव का एवं दर्शन का विषय बना था । डॉ. एलिस जो कि जीवन और अस्तित्व के बारे में खोज करने वाले प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक हैं, का स्पष्ट कहना है कि 'हमें यह सिखलाया जाता है कि विरोधी शक्तियों के आकर्षण विकर्षण के और विरोधी दिशाओं में खींच-तान के कारण ही हमारे ग्रहों और उपग्रहों की यह समूची व्यवस्था समन्वयपूर्ण ढंग से कार्य करने में सफल होती है। यही संघर्ष वनस्पति जगत् में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। विरोध का अस्तित्व जीवन के लिए कोई बाधा नहीं है, यह तो जीवन के सुचारु संपादन के लिए एक आवश्यकता है। ' यह तो अनुभव का विषय है कि हम चाहें तो भी जीवन में एकरूपता कायम नहीं कर सकते । स्थूल रूप से हम यदि ऐसा कर भी लेंगे तो सूक्ष्म दृष्टि से हम पायेंगे कि यह निर्मित एकरूपता और कुछ नहीं विभिन्न बहुलताओं का समुदाय मात्र है। विरोध और बहुलता से इंकार करने का मतलब है अस्तित्व का इंकार, जीवन का इंकार और अनेकान्त का इंकार | ग्लोबल समाज और अनेकान्त दर्शन दर्शन पक्ष की तरफ से अनेकान्त पर बहुत विचार हुआ, किन्तु यह युग की मांग है कि इस सिद्धान्त के सामाजिक पक्ष पर भी कुछ विचार हो। वैश्वीकरण के इस दौर में बहुरूपता और बहुलता और अधिक बढ़ी है। नये किस्म के समाज की संरचना हो रही है। एक धर्म, जाति, भाषा और एक समाज के मुहल्ले, गाँव बसना अब बन्द हैं। यह एक किस्म की आर्थिक परतंत्रता है कि व्यक्ति चाहकर भी संयुक्त एकरूपता कायम नहीं कर सकता। मनुष्य की रोजी-रोटी, नौकरी, व्यवसाय इत्यादि जिधर जमे उसे वहीं रहना पड़ता है। भिन्न भाषा, धर्म, जाति के लोगों के साथ कॉलोनियों में रहना है। यहाँ वैचारिक रूप से व्यक्ति अनेकान्त बन जाता है। सभी तरह के लोगों के साथ उठना-बैठना, व्यवहार निभाना, उनके समक्ष एक नये समाज की रचना प्रस्तुत करता है। ऐसी परिस्थिति में यदि वह अपने व्यक्तित्व को अनेकान्त में नहीं ढालता है तो उसका जीवन कठिन हो जायेगा । जैनदर्शन का अनेकान्तवाद विरोध में अस्तित्व का सिद्धान्त समझाकर इस व्यवहार जगत् को संदेश देता है और समाधान बतलाता है। यहाँ किसी एक विचार या
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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