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________________ 16 अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 उत्तमचागो संविभागो त्ति चागो। आइरिय-उवज्झाय-साहुणो सम्म विहिं पुव्वगं संविभागो आहारादीणं उत्तम चागो। उत्तमत्याग-संविभाग करना त्याग है। आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को आहारादि का सम्यक् विधिपूर्वक संविभाग करना/ दान देना उत्तम त्याग है। संजदस्स सुजोग्गं च णाणादिदाण-सत्तिणा। जधाविहि-पजुज्जंतं तस्स चागो हवेदि हि॥ चागो णिउत्ति-संगत्तो बहिरभितरो त्ति। कत्तिकेय मुणिणा पण्णत्तो जो चयदि मिट्ठभोज्जं उवयरणं राय-दोस-संजणयं। वसदि ममत्तहेतुं चायगुणो सो हवे तस्स॥ (कार्तिकेयानुप्रेक्षा.४०१) संयत के योग्य ज्ञानादि का यथाशक्ति, यथाविधि युक्त दान देना त्याग है। परिग्रह- बाह्य और आभ्यंतर होते हैं, उनकी निवृत्ति त्याग है। कार्तिकेय मुनि ने कहा- जो मिष्ठभोजन, उपकरण, राग-द्वेष की प्रवृत्ति, वसति एवं ममत्व के कारणों को छोड़ता है उसका त्याग गुण होता है। ___ सत्तिणो चाग दाणं च आहाराभय-णाणगं। स-पर-उवकारस्स अणुग्गहस्स अदिसग्गो दाणं। अप्पणो सेए अप्प-कल्लाणे रदा साहगा तेसिं साहगाणं रदणत्तय विगासत्थं अप्पदव्वस्स अदिसज्जणं दाणं चागो त्ति। शक्ति से दान/ देना त्याग है। वह आहार, अभय और ज्ञान रूप है। स्व-पर उपकार या अनुग्रह के लिए त्याग करना दान है। जो अपने श्रेय एवं आत्मकल्याण में रत साधक हैं, उन साधकों के रत्नत्रय विकास हेतु अपने द्रव्य का अतिसर्जन, दान देना त्याग है। अप्पवित्त परिच्चागो दाणं। चाग-माहप्पो- जो जणो बहिरभितर-परिग्गहादो णिव्वुत्तो होदि तस्स चागो। चागेण जादि पारिवारिग सुहं सामाजिग-सुह-संती रट्ठिय-जीवण विगासोत्ति। अपने धन का परित्याग दान है। त्याग की महिमा-जो मनुष्य बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से निवृत्त होता है, उसका त्याग होता है। त्याग से पारिवारिक सुख, सामाजिक सुख शान्ति होती है, इससे राष्ट्रीय जीवन भी विकसित होता है। चागे सुहं दुहं भोगे। राग-दोस-परिच्चागे आद-हिदो पर-हिदो वि। अणुवजोगीअहिदयारी वत्थूणं परिच्चागं णो भासदे चागो। सोत्तु विहिदव्व-दाउ-पत्त-विसेसादो जदि दिण्णं तदो सो सुहं उप्पज्जेदि। चागो वत्थु संविभागे वि होदि। त्याग में सुख है और भोग में दुःख। राग-द्वेष के परित्याग होने पर अपना और दूसरे का हित होता है। अनुपयोगी, अहितकारी आदि वस्तुओं के परित्याग को त्याग नहीं कहते। वह तो विधि पूर्वक दाता के द्वारा पात्र की विशेषता से यदि दिया गया है, उससे वह त्याग सुख उत्पन्न करता है। त्याग वस्तु के संविभाग से भी होता है। उत्तम साहगो पत्तो सो रदणत्तय मग्गगामी पडिदिणं अप्पहिदं परिहिदं च कुव्वेदि। णो केवलं पर दव्वाणं दाणं चागो, अवित्तु परदव्वाणिं पडि जायमाणं
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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