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________________ धर्मस्वरूप (गतांक से आगे) - प्रो. उदयचन्द जैन उत्तम-तवधम्मो चरण- उज्जमो तवो तप्पदे तवयणं संजमणं णियेप्पं सुद्धसरूवे सो तवो। जो आद-सहावं जाणिदुं णिच्चं झादि अरहं कसाय-इंदिय-विसय-समणत्थं कुणेदि संजमं णाण-णिलयं णादुं सज्झेदि सज्झायं धम्मणाणं सुक्कज्झाणं पत्तुं चरेदि रदणत्तय धम्मे। उत्तम तप धर्म चारित्र के प्रति उद्यम होना तप है। तपाना, संयमन करना और निजात्म के शुद्ध स्वरूप की ओर अग्रसर होना तप है। जो आत्म स्वभाव जानने के लिए अर्हत् को ध्याता, कषाय, इन्द्रिय विषय में शमनार्थ संयम पालन करना, ज्ञान निलय को जानने के लिए स्वाध्याय तथा धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान की प्राप्ति को रत्नत्रय धर्म में प्रविष्ट होता है। भगवदी आराहणाए पण्णत्तो चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो य आउंजणा य जो होदि। सो एव जिणेहि तवो भणिदो असढं चरंतस्स। (भ.आ. १०) भगवती आराधना में कहा गया है- चारित्र में जो उद्यम शील होता है, उसका तप धर्म होता है। जो सम्मदंसणं रित्तो कोडि-तवं-तवेज्जदे। णत्थि तं बोहि लाहो वि इच्छाणिरोह-संवरो॥ जो सम्यग्दर्शन के बिना करोड़ों वर्षों तक तप करता है, उसको बोधिलाभ नहीं होता है। तप इच्छाओं के निरोध का नाम है। सुद्धोवजोग विसुद्ध आदे संलीणत्तणं च भासदे तवो। सो दुविधो पण्णत्तोअणसणोमोदरिय-वित्ति-परिसंखाण रस-परिच्चाग-विवित्तसेज्जासण-कायकिलोसा। पायच्छित्त-विणय-वेय्यावच्च-सज्झाय-उस्सग्ग-झाणं च। तावएज्ज अट्ठविध कम्म च तवो। कम्मक्खयत्थं तप्पदे साहगो। शुद्धोपयोग विशुद्ध आत्मा में संलीनता को भी तप कहते हैं। वह दो प्रकार का कहा गया- अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शैयासन और कायक्लेश से छह बाह्य तप हैं। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह अंतरंग तप हैं। जो आठ प्रकार के कर्म को तपाता है वह तप है। साधक कर्मक्षयार्थ तपता है।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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