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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 (6) कृतिकर्म- इसमें अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु की पूजा विधि का वर्णन किया गया है। (7) दशवकालिक- इसमें दशवैकालिकों का वर्णन है साथ में मुनियों की आचारविधि और गोचर विधि का भी वर्णन है। (8) उत्तराध्ययन- अनेक प्रकार के प्रश्नों के समाधानात्मक उत्तर इसमें हैं। इसी में बताया गया है कि चार प्रकार के उपसर्ग कैसे सहन करना चाहिए। बाईस परीषहों को सहन करने की विधि क्या है? इन सभी के उत्तर हैं। (9) कल्प्य व्यवहार- इसमें साधुओं की प्रायश्चित्त विधि का वर्णन है। (10) कल्प्याकल्प्य- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा "मुनियों के लिए यह योग्य है और यह अयोग्य है।" इन्हीं सब बातों का वर्णन करता है। (11) महाकल्प्य- काल और संहनन का आश्रय कर साधु के योग्य द्रव्य और क्षेत्रादि का वर्णन करने वाला है। (12) पुण्डरीक- भवनवासी आदि चार प्रकार के देवों में उत्पत्ति के कारण रूप दान, पूजा, तपश्चरण आदि अनुष्ठानों का वर्णन करता है। (13) महापुण्डरीक- समस्त इन्द्रों और प्रतीन्द्रों में उत्पत्ति के कारण रूप तपोविशेष आदि आचरण का वर्णन करता है। (14) निषिद्धिका- बहुत प्रकार के प्रायश्चित्त के प्रतिपादन करने वाले आगम को निषिद्धिका कहते हैं। इस प्रकार अंगबाह्य शास्त्रों का परिचय दिया गया। प्रसंगप्राप्त अंग प्रविष्ट के भेदों की प्रतिपाद्य विषय-वस्तु को प्रस्तुत किया जा रहा है अंगप्रविष्ट- भगवान् अरहन्त सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित अर्थश्रुत से शब्दश्रुत का गुम्फन बुद्ध्यादि ऋद्धियों के स्वामी गणधरों द्वारा किया जो द्वादशांग रूप है, वही अंगप्रविष्ट जानना चाहिए। उन द्वादशांग का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है। (1) आचारांग- इसमें मुनियों का त्रयोदश प्रकार का चारित्र निरूपित है। साथ में आठ प्रकार की शुद्धि आदि का भी वर्णन है। (2) सूत्रकृतांग- जिसमें ज्ञान विनय, प्रज्ञापना, कल्प्य-अकल्प्य, छेदोपस्थापना आदि व्यवहार धर्म की क्रियाओं का निरूपण है, वह सूत्रकृतांग है। स्थानांग- जिसमें अर्थों के एक-एक, दो-दो आदि अनेक आश्रयरूप से पदार्थों का कथन किया जाता है, वह स्थानांग है। (4) समवायांग- जिसमें सर्व पदार्थों की समानता रूप से समवाय का विचार किया गया है, वह समवायांग है। (5) व्याख्याप्रज्ञप्ति- इस अंग में "जीव है कि नही?" इत्यादि साठ हजार प्रश्नों का उत्तर या निरूपण है। (6) ज्ञातृधर्मकथांग- इस अंग में अनेक आख्यानों और उपाख्यानों का वर्णन है।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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