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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 के भेद-प्रभेद को जानकर ही हो सकता है। अतः संक्षिप्त रूप में भेदों को भी प्रस्तुत किया जा रहा है। यह ज्ञान दो भेद रूप है शब्दलिंगज और अर्थलिंगज । अक्षरात्मक श्रुतज्ञान एवं अनक्षरात्मक (गो.जी.315) द्रव्यश्रुत और भावश्रुत (गो. जी. 348 ) । 58 लौकिक शब्द लिंगज श्रुतज्ञान सामान्य पुरुष के मुख से निकले हुए वचन समुदाय से जो उत्पन्न होता है, वह लौकिक शब्द लिंगज श्रुतज्ञान है। असत्य बोलने के कारणों से रहित पुरुष के मुख से निकले हुए वचन समुदाय से श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है, वह लोकोत्तर शब्द लिंगज श्रुतज्ञान है धूमादिक पदार्थरूप लिंग से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह अर्थ लिंगज श्रुतज्ञान है। इसका दूसरा नाम अनुमान है। 20 अक्षरात्मक श्रुतज्ञान- "जीवः अस्ति" ऐसा शब्द कहने पर कर्ण इन्द्रिय रूप मतिज्ञान के द्वारा " जीवः अस्ति" यह शब्द ग्रहण किया गया । इस शब्द से जीव नामक पदार्थ है, ऐसा ज्ञान हुआ सो श्रोत्रेन्द्रिय से उत्पन्न मतिज्ञान है । इस शब्द के वाच्यरूप आत्मा के अस्तित्व में वाच्य - वाचक संबन्ध के संकेत ग्रहणपूर्वक जो ज्ञान उत्पन्न है, वह अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है क्योंकि यह ज्ञान अक्षरात्मक शब्द से उत्पन्न हुआ है। अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान- परमार्थज्ञान अक्षर रूप नहीं है, जैसे शीतल पवन का स्पर्श होने पर वहाँ शीतल पवन का जानना तो मतिज्ञान है और उस ज्ञान से वायु की प्रकृति वाले को यह पवन अनिष्ट है, ऐसा जानना श्रुतज्ञान है। सो यह अनक्षरात्मक लिंग जन्य श्रुतज्ञान है क्योंकि यह अक्षर के निमित्त से उत्पन्न नहीं हुआ है। " द्रव्यश्रुत- पुद्गल द्रव्य स्वरूप वर्ण-पद वाक्यात्मक है। यह आचारांग आदि अंग, उत्पाद आदि पूर्व तथा सामायिकादि चौदह प्रकीर्णक रूप जानना । भावश्रुत- द्रव्यश्रुत को सुनने से होने वाला ज्ञान भावश्रुत है। यह अनक्षरात्मक पर्याय और पर्यायसमास ज्ञानों को मिलाने पर बीस प्रकार का है। 2 अंगबाह्य 23 और अंगप्रविष्ट के भेद से लोकोत्तर शब्द लिंगज श्रुत दो भेद रूप है। अंग बाह्य श्रुत अर्थ के ज्ञाता गणधर देव के शिष्य-प्रशिष्यों के द्वारा कालदोष से अल्प आयु और अल्प बुद्धि वाले प्राणियों के अनुग्रह के लिए अंगों के आधार से रचे गये संक्षिप्त ग्रंथ अंगबाह्य हैं। सुखबोधिनी तत्त्वार्थवृत्ति में अंगबाह्य को कालिक और उत्कालिक के रूप में वर्णित किया गया है। इसके भेदों का वर्णन किया जाता है(1) सामायिक- जो समता भाव के विधान का वर्णन करता है वह सामायिक है। (2) चतुर्विंशतिस्तव - इसमें चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना विधि उनके नाम, संस्थान, उत्सेध, पाँच कल्याणक, चौंतीस अतिशयों के स्वरूप और तीर्थंकरों की वंदना की सफलता का वर्णन है। (3) वन्दना - यह एक जिनेन्द्रदेव संबन्धी और उन एक जिनेन्द्र देव के अवलम्बन से जिनालय संबन्धी वंदना का वर्णन करता है। (4) प्रतिक्रमण - इसमें सात प्रकार के प्रतिक्रमणों का विवेचन है। (5) वैनयिक पाँच प्रकार के विनयों को इसमें वर्णित किया गया है।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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