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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 सुत्तं जिणोवदिळं पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहि। तं जाणणा हि णाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया॥१५॥ प्रवचनसार पुद्गल द्रव्यात्मक दिव्यध्वनि वचनों के द्वारा जिनेन्द्र भगवान् से उपदिष्ट सूत्र द्रव्य श्रुत है, उसकी ज्ञप्ति ज्ञान है। अर्थात् पूर्वोक्त शब्द श्रुत के आधार से जो ज्ञप्ति (जानना) है, वह ज्ञान कहा जाता है, उसी ज्ञान को सूत्र की ज्ञप्ति-श्रुतज्ञान कहा जाता है। आचार्य श्री अमृतचन्द्रदेव ने कहा है कि सम्यक्त्व के सद्भाव में श्रुतज्ञान और मिथ्यात्व के रहने पर कुश्रुत ज्ञान रहता है। अर्थात् श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से और मन के अवलम्बन से मूर्त-अमूर्त द्रव्य का विकल्प रूप से विशेषतः अवबोधन करता है, वह श्रुतज्ञान है और मिथ्यादर्शन के उदय के साथ श्रुतज्ञान ही कुश्रुतज्ञान है।' तत्त्वार्थसार में श्रुतज्ञान के लक्षण के साथ भेदों का भी निरूपण किया है "मतिज्ञान द्वारा जाने हुए विषय का अवलम्बन लेकर उसी विषय संबन्धी जो उत्तर तर्कणा उत्पन्न होती है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। इसके बीस भेद किये गये हैं। श्रुतज्ञान के अनेक पर्यायवाची नाम हैं। श्रुतज्ञान को तर्क भी कहते हैं। इस श्रुतज्ञान में समस्त पदार्थों तक को जानने की सामर्थ्य है। आचार्यों ने इसे केवलज्ञान सदृश कहा है। "द्वादशांग और चौदहपूर्व रूप परमागम संज्ञा वाला द्रव्य श्रुत है, वह मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के द्रव्यों के ज्ञान के विषय में परोक्ष की व्याप्ति ज्ञानरूप से केवलज्ञान के सदृश है। केवलज्ञान और स्याद्वाद श्रुत में तत्त्वों को जानने में मात्र साक्षात् (प्रत्यक्ष) एवं असाक्षात् (परोक्ष) का भेद है। इन दोनों में से किसी एक के भी अभाव में वस्तु की सिद्धि नहीं होती है। प्रवचनसार की टीका तात्पर्य वृत्ति में कहा है कि विचित्र गुण पर्यायों सहित समस्त पदार्थ श्रमणों को स्वयमेव ज्ञेयभूत होते हैं क्योंकि श्रमण विचित्र गुण-पर्याय वाले सर्व द्रव्यों में व्यापक अनेकान्तात्मक श्रुत ज्ञानोपयोग रूप होकर परिणमित होते हैं इसलिए यह कथन सत्य है कि आगम चक्षु वालों को कुछ अदृश्य नहीं है। हाँ, द्रव्यश्रुत ज्ञान का विषय समस्त पदार्थों का अनन्तवां भाग भले ही हो किन्तु भावश्रुत ज्ञान का विषय समस्त पदार्थ हैं क्योंकि ऐसा माने बिना तीर्थकरों के वचनातिशय का अभाव होगा। श्रुतज्ञान को भट्टाकलंक देव ने द्रव्य आदि सामान्य से अनादिनिधन कहा है। किसी पुरुष ने कहीं और कभी किसी भी प्रकार से द्रव्य सामान्य आदि की रचना नहीं की है। हाँ, उन्हीं द्रव्य आदि विशेष नय की अपेक्षा उसका आदि और अन्त संभव है इसलिए मतिज्ञान पूर्वक होता है ऐसा कहा जाता है। बीजाङ्कुरवत् अनादिनिधन है। 4 छद्मस्थजीव भावश्रुत ज्ञान द्वारा निज शुद्ध आत्मा का अनुभव करते हैं तथा केवली भगवान् केवलज्ञान द्वारा निज शुद्ध आत्मा का अनुभव करते हैं इसलिए आत्मानुभव और आत्मज्ञान की अपेक्षा से केवलज्ञान और श्रुतज्ञान में समानता है जैसाकि आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कहते हैं- जैसे भगवान् युगपत् परिणमन करते हुए समस्त चैतन्य विशेष युक्त केवलज्ञान द्वारा अनादि निधन-निष्कारण (अहेतुक) असाधारण-स्वसंवेद्यमान चैतन्य सामान्य जिसकी महिमा है तथा जो चेतक स्वभाव से एकत्व होने से केवल (अखण्ड) है, ऐसे आत्मा का
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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