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तत्त्वार्थवार्तिक में वर्णित श्रुतज्ञान और उसकी दार्शनिक मीमांसा
___ -डॉ. श्रेयांसकुमार जैन
जैनन्याय के प्रतिष्ठापक आचार्य अकलंकदेव द्वारा रचित प्रायः सभी ग्रंथ दार्शनिकता से परिपूर्ण हैं, उन्हीं ग्रंथों में तत्त्वार्थवार्तिक नामक ग्रन्थ भी है, जो तत्त्वार्थसूत्र पर लिखे गये वार्तिकों से संवलित व्याख्या ग्रंथ है। तत्त्वार्थसूत्र का विषय सैद्धान्तिक और आगमिक है। फलत: तत्त्वार्थवार्तिक में उसी विषय का प्राधान्य होना स्वाभाविक है। आगम और सिद्धान्त में ज्ञान की प्रमुखता होती है। सम्यक्त्व के सद्भाव में ज्ञान सम्यग्ज्ञान संज्ञा से अभिहित होता है। सम्यग्ज्ञान मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवल भेदरूप से पांच प्रकार का है। इन पाँचों में श्रुतज्ञान का विशेष स्थान और महत्त्व है। 'श्रुतज्ञान' का विषयभूत अर्थ श्रुत है। 'श्रुत' शब्द की निरुक्ति है "श्रूयते अनेन तत् श्रृणोति श्रवणमात्रं वा श्रुतम्। जिसके द्वारा पदार्थ सुना जाता है। जो सुनता है या सुनना मात्र श्रुत कहलाता है। यह श्रुत शब्द सुनने रूप अर्थ की मुख्यता से निष्पादित है तो भी रूढ़ि से उसका वाच्य कोई ज्ञान विशेष है। जैसे कुशल शब्द का व्युत्पत्ति अर्थ कुश को काटने वाला होता है फिर भी उस व्युत्पत्ति अर्थ को छोड़कर सर्वत्र कुशल का अर्थ रूढ़िवश चतुर किया जाता है उसी प्रकार श्रुत शब्द का भी व्युत्पत्ति अर्थ सुना हुआ है तथापि रूढ़िवश उसका श्रुतज्ञान रूप ज्ञान विशेष अर्थ लिया जाता है। श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है। अर्थात् मतिज्ञान के बाद अस्पष्ट अर्थ की तर्कणा को लिए हुए जो ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। आचार्य कार्तिकेय ने कहा है- जो परोक्ष रूप से सब वस्तुओं को अनेकान्त रूप दर्शाता है। संशय, विपर्यय आदि से रहित होता है, उस ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। यह इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाले मतिज्ञानपूर्वक तो होता है किन्तु इसमें मन की ही प्रधानता रहती है जैसा कि तत्त्वार्थवार्तिककार कह रहे हैं- शब्द सुनने के बाद जो मन की ही प्रधानता से अर्थज्ञान होता है, वह श्रुत है। एक घड़े को इन्द्रिय और मन से जानकर तज्जातीय विभिन्न देशकालवर्ती घटों के संबन्ध से जाति आदि का जो विचार होता है वह श्रुत है। जीव को जानकर सत्संख्यादि अनुयोगों के द्वारा नाना प्रकार से वर्णन करने में जो समर्थ होता है, वह श्रुतज्ञान है।
आचार्य श्री वीरसेनस्वामी जिस ज्ञान में मतिज्ञान कारण पड़ता है, जो मतिज्ञान से ग्रहण किये गये पदार्थ को छोड़कर तत्संबन्धित दूसरे पदार्थ में व्यापार करता है और श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रुतरूप उपाधि के कारण ज्ञान में कोई भेद नहीं होता है