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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011
प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में सामायिक में रत गृहस्थ को वस्त्रसहित मुनि के समान बताया है क्योंकि संचित कर्मों को नष्ट करता है एवं नये कर्मों को ग्रहण नहीं करता है।" साथ ही सोलहवें स्वर्ग की संपदा पाकर मोक्ष में जा विराजमान हो जाता है। परन्तु जो व्यक्ति गृहस्थाश्रम रूपी रथ में लगे रहने पर भी सामायिक नहीं करते सदा पापकर्मों की चिंता में ही लगे रहते हैं वे निपट बैल हैं इसमें कोई संदेह नहीं है। 12 जो सामायिक, महामंत्र स्तवन आदि में भरपूर धर्म्यध्यान को नहीं करते वे पाप के कारण नरक में पड़ते हैं जिस प्रकार परमाणु से कोई छोटा नहीं और आकाश से अन्य कोई बड़ा नहीं है उसी प्रकार पञ्चनमस्कार मंत्र से बढ़कर और कोई मंत्र इस संसार में नहीं है। उमास्वामी श्रावकाचार में सामायिक की क्रिया करने वाले को कहा गया है कि वह मनुष्य भरतराज के समान शीघ्र ही केवलज्ञान की प्राप्ति करता है। श्रावकाचार सारोद्धार में स्पष्ट किया है कि सामायिक के समय गृहस्थ वस्त्र से परिवेष्टित मुनि के समान मुनिपने को प्राप्त हो जाता है जैसे अग्नि काष्ठ को भस्म कर देती है, सूर्य बढ़ते हुए महान्धकार के समूह को विनष्ट कर देता है उसी प्रकार समता भावरूप स्वच्छजल के प्रवाह से जिसके भीतर शांतस्वरूप लक्ष्मी होती है। ऐसा भव्य जीवों का प्रिय सामायिक रूप वृक्ष अति उद्धत कर्मों के उदय से उत्पन्न ताप को शांत कर देता है।
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प्रतिक्रमण का स्वरूप, विधि एवं महत्त्व
श्रावकाचार संग्रह में अमितगति श्रावकाचार, धर्मसंग्रह श्रावकाचार एवं व्रतोद्योतन श्रावकाचार के अतिरिक्त किसी अन्य श्रावकाचार में प्रतिक्रमण के सम्बन्ध में विशेष विवेचना नहीं की गई है क्योंकि अव्रती श्रावक के लिए प्रतिक्रमण का विधान आगमों में नहीं मिलता है। अतः श्रावकाचार में भी इसकी विशेष विवेचना प्राप्त नहीं होती है। आचार्य अमितगति के अनसार प्रतिक्रमण का स्वरूप और विधि इस प्रकार से है
सांयकाल संबन्धी प्रतिक्रमण करते समय 108 श्वासोच्छ्वास वाला कायोत्सर्ग किया जाता है। प्रभातकाल संबन्धी प्रतिक्रमण में उससे आधा अर्थात् 54 श्वासोच्छ्वास वाला कायोत्सर्ग कहा गया है। अन्य सर्व कायोत्सर्ग सत्ताईस श्वासोच्छ्वास काल प्रमाण कहे गये हैं। संसार के उन्मूलन में समर्थ पञ्चनमस्कार मंत्र के नौ बार चिंतन करने पर सत्ताईस श्वासोच्छ्वासों में बोलना या मन में उच्चारण करना चाहिए। बाहर से भीतर की ओर वायु के खींचने को श्वास कहते हैं। भीतर की ओर से बाहर वायु के निकालने को उच्छवास कहते हैं। इन दोनों के समूह को श्वासोच्छ्वास कहते हैं। श्वास लेते समय ‘णमो अरहंताणं' पद और श्वास छोड़ते समय 'णमो सिद्धाणं' पद बोलें। पुनः श्वास लेते समय ' णमो आइरियाणं' पद और श्वास छोड़ते समय णमो उवज्झायाणं' पद बोलें। पुनः 'णमो लोए' को श्वास लेते समय और 'सव्व साहूणं' पद श्वास छोड़ते समय बोलना चाहिए। इस विधि से नौ बार णमोकारमंत्र के उच्चारण के चिंतन में सत्ताईस श्वासोच्छ्वास प्रमाण काल का एक जघन्य कायोत्सर्ग कहा गया है। श्रावकों को प्रतिदिन दो बार प्रतिक्रमण, चार बार स्वाध्याय, तीन बार वंदना और दो बार योगभक्ति करना चाहिए । उत्कृष्ट श्रावक को ये सर्व कार्य प्रयत्न पूर्वक करना चाहिए और संसार के पार जाने के इच्छुक अन्य पुरुषों को