SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 को सीधा लटकाकर, दोनों पाँवों के बीच में चार अंगुल की जगह छोड़कर अपने सीने को सीधा रखकर नासा दृष्टि लगाकर कायोत्सर्गपूर्वक आसन पर खड़ा होकर 48 मिनट तक सामायिक करने की प्रतिज्ञा करता है। मेरी सामायिक काल की मर्यादा पूर्ण न हो जाये, तब तक मैं दूसरे स्थान का एवं परिग्रह का त्याग करता हूँ और अपनी देह पर पड़े हुए परिग्रह का त्याग करता हूँ। शरीर के प्रति ममता का त्याग करने का अभ्यासपूर्वक चारों दिशाओं में से प्रत्येक में नौ बार णमोकार मंत्र का जाप, तीन आवर्त, एक शिरोनति और जिस दिशा से आज्ञा ली है उस दिशा में अष्टांग नमस्कार करके तीन बार 'नमोऽस्तु' बोलकर आसन लगाता है। सामायिक पूर्ण होने तक खड़गासन, पद्मासन एवं पर्यकासन उक्त तीन आसनों में से किसी एक आसन से सामायिक को पूर्ण करता है। प्रतिज्ञा की हुई कालावधि में एक आसन से ही जाप करके सामायिक पूर्ण करता है। आचार्य सोमदेव के अनुसार देवपूजा, आप्त सेवा ही सामायिक है। श्रावक को प्रतिदिन तीनों संध्याकालों में जिनेन्द्र देव की जिनपूजा पूर्वक सामायिक करना चाहिए। जिनपूजा के बिना सभी सामायिक क्रिया दूर है। अतः सामायिक करने वाले भव्यों को पूजा शास्त्र में कह गये क्रम के अनुसार निरंतर जिनपूजा करनी चाहिए। वस्तुतः सोमदेव के अतिरिक्त किसी अन्य आचार्य ने देवपूजा को सामायिक निरूपित नहीं किया है। समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में सामायिक का महत्त्व दो शब्दों से प्रतिपादित किया है- प्रथम चेलोपसृष्टमुनिरिव दूसरा 'यथाजात'। वस्तुतः शिक्षाव्रती को मुनिरिव कहना और उसकी पुष्टि तीसरी प्रतिमाधारी को 'यथाजात' शब्द कहकर 'नग्न' होकर सामायिक में मुनि बनने का अभ्यास करने की ओर संकेत है। यद्यपि यह सब उपचार से कथन है परन्तु सामायिक का महत्त्व स्पष्ट है। आचार्य समन्तभद्र का समर्थन कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी किया गया है।' पुरुषार्थसिद्ध्युपायकार ने भी सामायिक शिक्षाव्रती को महाव्रती कहकर महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। अमितगति श्रावकाचार में सामायिक में स्थित शिक्षाव्रती को महात्मा शब्द से व्यवहृत किया है।' सागारधर्मामृत में सामायिक को शाश्वत मुक्ति का कारण बताया है और सामायिक के दो भेद करके द्रव्य सामायिक में पूजन को महत्त्व दिया है और भाव सामायिक में आत्म ध्यान को महत्त्व दिया है। इस संबन्ध में कहा है कि जिस महात्मा के द्वारा यह भाव सामायिक प्रतिमा रूप भाव धारण किया गया है उस महात्मा ने सामायिक व्रत रूपी मंदिर के शिखर पर कलश स्थापित किया है। धर्मसंग्रह श्रावकाचार में सामायिक का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा है कि जिस सामायिक व्रत के धारण करने से अभव्य पुरुष ग्रैवेयक पर्यन्त तक चला जाता है तो सम्यग्दर्शन से पवित्र भव्य पुरुष उस व्रत के माहात्म्य से मोक्ष नहीं जायेगा? अवश्य जायेगा।' प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में सामायिक को धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान को प्रकट करने वाला कहा है।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy