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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 चाहिए। सामायिक काल में आरंभ सहित सभी परिग्रह नहीं होते हैं, अत: उस समय गृहस्थ वस्त्र से वेष्टित मुनि के समान मुनिपने को प्राप्त होता है। सामायिक को प्राप्त हुए गृहस्थों को चाहिए कि वे सामायिक के समय शीत, उष्ण और दंशमशक आदि परिषह को तथा अकस्मात् आये हुए उपसर्ग को भी मौन धारण करते हुए अचलयोगी होकर अर्थात् मन-वचन-काय की दृढ़ता के साथ सहन करें। सामायिक के समय श्रावक को ऐसा विचार करना चाहिए कि जिस संसार में रह रहा हूँ वह अशरण है, अशुभ है, अनित्य है, दुखरूप है और मेरे आत्म स्वरूप से भिन्न है तथा मोक्ष इससे विपरीत स्वभाव वाला है, अर्थात् शरणरूप है, शुद्धरूप है, नित्य है, सुखमय है और आत्मस्वरूप है। संसार, देह और भोगों से उदासीन होने के लिए अनित्य, अशरण आदि भावों का तथा मोक्षप्राप्ति के लिए उसके नित्य शाश्वत सुखरूप का चिंतन करें। इस सामायिक शिक्षाव्रत के ये पांच अतिचार हैंसामायिक करते समय वचन का दुरुपयोग करना, मन में संकल्प-विकल्प करना, काय का हलन-चलन करना, सामायिक का अनादर करना और सामायिक करना भूल जाना। उपर्युक्त शिक्षाव्रत की विवेचना के उपरांत सामायिक प्रतिमा की दृष्टि से विवेचना श्रावकाचार संग्रह में प्राप्त होती है। समत्व साधना में साधक जहां बाह्य रूप में (हिंसक) प्रवृत्तियों का त्याग करता है, वहीं आंतरिक रूप में सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव एवं सुख-दुख, लाभ-हानि आदि में समभाव रखता है। लेकिन इन दोनों से भी ऊपर वह अपने विशुद्ध रूप में आत्म साक्षात्कार का प्रयत्न करता है। समय एकत्वेन आत्मनि आयः आगमनं परद्रव्येभ्यो निवृत्य उपयोगस्य आत्मनि प्रवृत्तिः समायः सं प्रयोजनमस्येति सामायिकम्। 'सं' अर्थात् एकत्वपने से "आय" अर्थात् आगमन परद्रव्यों से निवृत होकर उपयोग की आत्मा में प्रवृति होना। वह समय ही जिसका प्रयोजन है, उसे सामायिक कहते हैं। श्रावकाचार संग्रह में सामायिक का विचार सभी श्रावकाचारों में एक सा ही मिलता है। बारह व्रतों के अन्तर्गत चार शिक्षाव्रतों में प्रथम शिक्षाव्रत है। इसके बाद तीसरी प्रतिमा सामायिक के रूप में ग्रहण की गई है। प्रायः सभी आचार्यों ने एक सा अनुसरण किया है। सर्वप्रथम आचार्य समन्तभद्र ने सामायिक के स्वरूप को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार के टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य ने विस्तार में विवेचना की है। आचार्य समन्तभद्र के निम्नलिखित श्लोक को आधार मानकर परवर्ती आचार्यों ने सामायिक का स्वरूप, विधि एवं महत्त्व बतलाया है। चतुरावर्तत्रितयश्चतुः प्रणामः स्थितो यथाजातः। सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी। र.क.श्रा. 5/18 अर्थात् सामायिक पदधारी श्रावक चार बार तीन-तीन आवर्त और चार बार नमस्कार करने वाला यथाजातरूप से अवस्थित ऊर्ध्व कायोत्सर्ग और पद्मासन का धारक मन-वचन-काय इन तीनों योगों की शुद्धिवाला और प्रात: मध्याह्न और सायंकाल इन तीनों संध्याओं में वंदना को करने वाला सामायिकी श्रावक है।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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