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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 से बचना चाहिए। यहाँ पर यह बात विशेष अवधेय है कि जैसे शक्ति की अपेक्षा निरपेक्ष तन्तु वेमा आदि में कथंचित् पर का कारणपना माना जाता है, वैसे ही निरपेक्ष नयों में भी शक्ति की अपेक्षा सम्यग्ज्ञान का कारणपना माना जा सकता है। इसी बात को सर्वार्थसिद्धि (1.33) में इस प्रकार स्वीकार किया गया है- 'अथ तन्त्वादिषु पटादिकार्य शक्त्यपेक्षया अस्तीत्युच्यते । नवेष्वपि निरपेक्षेषु बुद्ध्यभिधानरूपेषु कारणवशात् सम्यग्दर्शनहेतुत्व विपरिणतिसद्भावात् शक्त्यात्मनास्तित्वमिति साम्यमेवोपन्यासस्य ।' 17 अर्थात् तन्तु आदि में पटादि कार्य शक्ति की अपेक्षा है ही तो यह बात शब्द रूप निरपेक्ष नयों के विषय में भी जानना चाहिए उनमें भी ऐसी शक्ति पाई जाती है जिससे वे कारणवश सम्यग्दर्शन के हेतुरूप से परिणमन करने में समर्थ हैं। अतः दोनों में शक्ति की अपेक्षा साम्य है। ३. पुण्य और पाप तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वामी ने 'शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य' (6.3) कहकर स्पष्ट कर दिया है कि शुभ मन-वचन-काय की प्रवृत्ति पुण्य का और अशुभ मन-वचन-काय की प्रवृत्ति पाप का कारण है। इस कथन से पुण्य और पाप की न केवल भिन्नता अपितु विपरीतता स्पष्ट है योग की शुभता और अशुभता में कारण बताते हुए पूज्यपादाचार्य ने स्पष्ट किया है 'शुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः शुभः । अशुभपरिणामनिर्वृत्तश्चाशुभः । (सर्वार्थसिद्धि 63) अर्थात् जो योग (मन-वचन-काय का प्रवर्तन) शुभ परिणामों के निमित्त से होता है वह शुभ योग है और जो योग अशुभ परिणामों के निमित्त से होता है वह अशुभ योग है। 'पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्' (6.3) अर्थात् जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होता है वह पुण्य है तथा 'पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम्' (6.3) अर्थात् जो आत्मा को शुभ में नहीं लगने देता है वह पाप है। पूज्यपादाचार्य ने अनशन आदि बाह्य तपों, जो स्वयं शुभ प्रवृत्ति रूप हैं, को संवर का और निर्जरा का हेतु वर्णित किया है। अतः पुण्य को पाप के समान बन्धन का ही कारण मानना समीचीन नहीं कहा जा सकता है। सर्वार्थसिद्धि (89) में तो यहाँ तक कहा गया है कि दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व प्रकृति की फलदान शक्ति को जब शुभपरिणामों के द्वारा रोक दिया जाता है तब वही सम्यक्त्व प्रकृति कहलाने लगती है- 'तदेव सम्यक्त्वं शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसं वदौदासीन्येनावस्थितमात्मनः श्रद्धानं न निरुणद्धि तवेद्यमानः पुरुषः सम्यग्दृष्टिरित्यभिधीयते।' (सर्वार्थसिद्धि 8.9 ) ४. आगमिक परम्परा की रक्षा - सर्वार्थसिद्धि की रचना को देखकर यह बात दृढ़तापूर्वक कही जा सकती है कि आचार्य पूज्यपाद ने सिद्धान्त ग्रंथों का गंभीर आलोडन किया था। इस प्रसंग में यदि हम केवल तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के सातवें और आठवें सूत्र 'निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ' एवं 'सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तर
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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