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________________ 16 अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 कल्पना की है, उनके ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष एवं अनुमान से विरोध आता है। अतः ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष एवं अनुमान से विरोध आता है। अतः इस दोष को दूर करने के लिए तत्त्व एवं अर्थ दोनों पदों का ग्रहण किया गया है। इस कथन से परब्रह्मवादी अद्वैत वैदान्तियों की मान्यता का खण्डन किया गया है। पूज्यपादाचार्य ने अपनी सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थवृत्ति में विविध दार्शनिकों की निरपेक्ष नयात्मक भ्रान्तियों का निरसन करके सापेक्ष नयों के आश्रय से जैनदर्शन मान्य सिद्धान्तों की सुष्ठु विवेचना की है। सैद्धान्तिक वृत्तिवैशिष्ट्य सर्वार्थसिद्धि में जैन सिद्धान्तों का अत्यन्त सुबोध शैली में विवेचन किया गया है। यहाँ सैद्धान्तिक दृष्टि से उन बातों पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है, जिन पर प्रायः एकान्तवाद की छाया मंडराती रहती है। १. अकालमृत्यु- कुछ एकान्तवादी अकाल का अर्थ कालभिन्न कारण करके मनमाना अर्थ करते हैं। पूज्यपाद स्वामी का निम्नलिखित कथन स्पष्ट करता है कि अकालमरण का अर्थ 'अकाले मरणम्' अर्थात् असमय में मरण ही है। यथा ___ 'एवं छेदनभेदनादिभिः शकलीकृतमूर्तीनामपि तेषां न मरणमकाले भवति। कुतः? अनपवायुष्कत्वात्। (सर्वार्थसिद्धि, 3.5) अर्थात् उन नारकियों का शरीर छेदन, भेदन आदि के द्वारा खण्ड-खण्ड हो जाता है, तब भी उनका अकाल में मरण नहीं होता, क्योंकि उनकी आयु घटती नहीं है। पूज्यपादाचार्य के इस कथन से स्पष्ट है कि जो अनवयायुष्क नहीं हैं, उनका अकाल में मरण होता है। अकाल का अर्थ समय के पूर्व ही है। यदि कालभिन्न कारण से मरण अभिप्रेत होता तो पूज्यपादाचार्य 'अकालेन मरणम्' प्रयोग करते, न कि अकाले मरणम्। २. निश्चय और व्यवहार नय- आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने प्रमाण और नय का अन्तर स्पष्ट करते हुए तथा चोक्तम् कहकर लिखा है-'सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीनः' (सर्वार्थसिद्धि 1.6) अर्थात् सकलादेश प्रमाण का विषय है और विकलादेश नय का विषय है। उन्होंने 'नयो द्विविधः द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च' कहकर नय के दो भेद किये हैं। द्रव्यार्थिक को निश्चय और पर्यायार्थिक को व्यवहार भी कहा जाता है। कुछ लोग जानबूझकर नयों की तोड़-मरोड़कर व्याख्या करते हैं। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है 'वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात्साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवण: प्रयोगो नयः' (सर्वार्थसिद्धि, 1.33) अर्थात् अनेकान्तात्मक वस्तु में विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्यविशेष की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग को नय कहते हैं। नय श्रुतज्ञान का एक भेद है। सभी नय सापेक्ष रहने पर प्रमाणांश हैं और निरपेक्ष रहने पर मिथ्या। अत: गृहीतमिथ्यात्व से बचने के लिए एकान्त की प्ररूपणा
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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