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________________ 14 अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 गया है। वे लिखते हैं- 'अज्ञानपूर्वकाचरणनिवृत्त्यर्थ' सम्यग्विशेषणम्।' (सर्वार्थसिद्धि, 1.1) अर्थात् चारित्र के पहले सम्यक् विशेषण अज्ञानपूर्वक आचरण के निराकरण करने के लिए दिया है। 'तत्प्रमाणे' (तत्त्वार्थसूत्र 1.10) की उत्थानिका में 'केषाञ्चिदिन्द्रियमिति' कहकर योगदार्शनिकों के द्वारा इन्द्रिय को प्रमाण मानने की अवधारणा का निराकरण करने के लिए 'तत्' शब्द समाविष्ट किये जाने की बात पूज्यपादाचार्य ने कही है। क्योंकि मति आदि ज्ञान ही प्रमाण हैं। ४. न्याय दर्शन समीक्षाआचार्य उमास्वामी ने पाँच ज्ञानों का कथन करने के पश्चात् उन्हें दो प्रमाण रूप कहा है मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्। तत्प्रमाणे। (तत्त्वार्थसूत्र, 1.9-10) 'तत्प्रमाणे' सूत्र की उत्थानिका में पूज्यपादाचार्य ने 'केषाञ्चित् सन्निकर्षः केषाञ्चिदिन्द्रियमिति' कहकर नैयायिकों के मत का उल्लेख किया है। न्यायभाष्य में वात्स्यायन ने सन्निकर्ष को, तो न्यायवार्तिक में उद्योतकर ने इन्द्रिय को तथा केशवमिश्र ने तर्कभाषा में इन्द्रियार्थसन्निकर्ष को प्रत्यक्ष प्रमाण माना है। पूज्यपादाचार्य की दृष्टि में सन्निकर्ष एवं इन्द्रिय प्रमाण नहीं हैं। क्योंकि चक्षु अप्राप्यकारी इन्द्रिय है।। तर्कभाषा में, 'गुणाश्रयो द्रव्यम्' (तर्क. पृ.37) को द्रव्य का लक्षण करते हुए गुणों के समवायिकारणत्व को द्रव्य कहा गया है। अर्थात् जिसमें समवाय सम्बन्ध से गुणों को धारण करने की योग्यता हो वह द्रव्य है। 'द्रव्याणि' (तत्त्वार्थसूत्र 5.2) की वृत्ति में 'द्रव्यत्वयोगाद् द्रव्यमिति चेत्? न, उभयासिद्धेः' कहकर पूज्यपादाचार्य ने नैयायिक सम्मत द्रव्य के लक्षण का निरसन किया है। क्योंकि दण्ड-दण्डी के योग की तरह द्रव्य और द्रव्यत्व पृथक्-पृथक् नहीं है। गुण तो द्रव्य में पूर्व से ही विद्यमान होता है। अत: 'द्रव्यत्वयोगाद् द्रव्यम्' यह द्रव्य का लक्षण नहीं बन सकता है। इस बात का नैयायिकों के पास कोई उत्तर नहीं है कि जब पहले द्रव्य निर्गुण उत्पन्न होता है तो उसमें समवाय सम्बन्ध से गुण कैसे उत्पन्न हो सकते हैं? श्रुतज्ञान के संदर्भ में पूज्यपादाचार्य ने अपौरुषेय को प्रामाण्य कहने का खण्डन करते हुए कहा है- 'न चापौरुषेयत्वं प्रामाण्यकारणं चौर्याधुपदेशस्यास्मर्यमाणकर्तृकस्य प्रामाण्यप्रसंगात्' (सर्वार्थसिद्धि १.२०) अर्थात् अपौरुषेयता प्रमाणता का कारण नहीं है। यदि अपौरुषेयता को प्रमाणता का कारण माना जाय तो जिसके कर्ता का स्मरण नहीं होता है ऐसे चोर आदि के उपदेश भी प्रमाण हो जायेंगे। ५. वैशेषिक दर्शन समीक्षा न्याय दर्शन के अतिरिक्त एक विशेष (भेदक तत्त्व) नामक पदार्थ स्वीकार करने के कारण यह वैशेषिक दर्शन कहलाता है। वैशेषिकसूत्र के प्रणेता कणाद ऋषि माने जाते हैं। पूज्यपादाचार्य ने सर्वार्थसिद्धि की उत्थानिका में वैशेषिक मान्य मोक्षस्वरुप का उल्लेख करके उसका खण्डन किया है। वे लिखते हैं
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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