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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 13 प्रत्यक्ष ज्ञान पूर्वक होती है और सर्वज्ञ का ज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं है, अतः इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष मानना ठीक नहीं है। २. सांख्य दर्शन समीक्षा सर्वार्थसिद्धि की उत्थानिका में सर्वप्रथम सांख्य दर्शन की समीक्षा की गई है। सांख्य दार्शनिक दुःखत्रय - आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक से ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक निवृत्ति को मोक्ष मानते हैं, जो जैन दार्शनिकों के मन्तव्य के अत्यन्त निकट है। वे आत्मा को चैतन्य स्वरूप भी मानते हैं, किन्तु उसमें ज्ञान नहीं मानते हैं। उनके अनुसार ज्ञान / बुद्धि जड़ प्रकृति का विकार है पुरुष या चैतन्य स्वरूप आत्मा प्रकृति के ज्ञान के संसर्ग से अपने को ज्ञानी मानने लगता है। 'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्, तच्च ज्ञेयाकार परिच्छेदपराङ्मुखम् (पुरुष का स्वरूप चैतन्य है, जो ज्ञेय पदार्थ के ज्ञान से रहित है) कहकर सांख्यमत का उल्लेख किया गया है। पूज्यपादाचार्य का कहना है कि ऐसा चैतन्य तो सत् स्वरूप होकर भी वस्तुतः असत् ही है, क्योंकि ऐसा मानने पर उसका कोई आकार (स्वरूप) ही प्राप्त नहीं होता है। वे सांख्यों का निराकरण करते हुए कहते हैं कि- 'तत्सदप्यसदेव निराकारत्वादिति।' (सर्वार्थसिद्धि, उत्थानिका प्र.2 ) पूज्यपादाचार्य ने सांख्य दार्शनिकों के मोक्ष तत्त्व की आलोचना न करके पुरुष तत्त्व की आलोचना की है, उसका यही प्रयोजन जान पड़ता है कि सांख्य स्वयं अन्ततः पुरुष की मुक्ति न मानकर वस्तुतः प्रकृति की ही मुक्ति मानते हैं । ईश्वरकृष्ण तो स्पष्ट घोषित करते हैं 'तस्मान्न बध्यतेऽद्धा न मुच्यते न संसरति संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया कश्चित् । प्रकृतिः ॥ (सांख्यकारिका, 62) न अर्थात् तात्त्विक रूप से कोई भी पुरुष न तो संसरण - जन्ममृत्यु को पाता है, बन्धन में पड़ता है और न मुक्त होता है। यह प्रकृति ही विभिन्न प्रकार के आश्रयों को अपनाती हुई संसरण को प्राप्त होती है, बन्धन को प्राप्त होती है तथा मुक्त (क्लेश, कर्म एवं आशयों के तिरोभाव) हो जाती है। सांख्य दार्शनिकों के अनुसार पुरुष (आत्मा) से प्रकृति (जड़) का अलगाव ही मोक्ष है। ३. योग दर्शन समीक्षा योग दार्शनिक सांख्यसम्मत 25 तत्वों के अतिरिक्त ईश्वर को भी स्वीकार कर 26 तत्त्व मानते हैं। एतावता योग में और सांख्य में विषय समान हैं किन्तु मुक्तिमार्ग के साधन भिन्न-भिन्न हैं। योग धर्म को मुक्ति का साधन मानता है तो सांख्य तत्त्वज्ञान को । योग दर्शन सांख्य का प्रायोगिक दर्शन कहा जा सकता है। यद्यपि पूज्यपादाचार्य ने योग दर्शन की सीधी समीक्षा नहीं की है, किन्तु ज्ञान के बिना आचरण मात्र से मुक्ति की अवधारणा का खण्डन 'सम्यक्' पद की विवेचना करते हुए प्रथम सूत्र 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : ' ( तत्त्वार्थसूत्र, 1.1 ) की वृत्ति में किया
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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